
कांग्रेस और आरएसएस के बीच महात्मा गांधी की हत्या से संघ के जुड़ाव को लेकर जारी विवाद में नया मोड़ आ गया है। गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे द्वारा ट्रायल कोर्ट में दिया गया हलफनामा कई विवादास्पद मुद्दों पर साफ तस्वीर सामने रखता है। 8 नवंबर, 1948 को दाखिल किया गया गोडसे का हलफनामा बताता है कि उसने विचाराधारा और हिंदुओं को एक करने के लिए किए जा रहे कार्यों से प्रेरणा लेकर उसने आरएसएस ज्वाइन किया, लेकिन सिर्फ अपने आकाओं से सीखे मकसद को अंजाम को देने के लिए। एफिडेविट में गोडसे ने कहा था, ”मैंने कई सालों तक आरएसएस में काम किया। बाद में मुझे लगा कि हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए देश की राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना जरूरी है। इसलिए मैंने संघ छोड़कर हिंदू महासभा की सदस्यता ले ली।”
नाथूराम गोडसे के भाई, गोपाल गोडसे ने जेल से छूटने के बाद अपने भाई के आरएसएस के जुड़ाव के बारे में लिखा था। उसने लिखा, ”वह (नाथूराम) महसूस करने लगा था कि हिंदुओं को एक करने का कार्य कितना बड़ा था और यह भी कि आरएसएस के काम को राजनैतिक क्षेत्र में भी उभारने की जरूरत है। उसे लगता कि उसके लिए सांगली बहुत छोटी जगह है, इसलिए वह पुणे चला गया। नाथूराम ने खुद को पूरी तरह हिंदू संगठन के लिए समर्पित कर दिया था।” गोडसे का एफिडेविट इस बात पर जोर देता है कि कैसे हिंदुओं के प्रति सहानुभूति ने उसे बेचैन और आक्रामक बना दिया। वीर सावरकर के ‘सार्वजनिक जीवन से खुद को अलग करने के बाद’ उसने कहा, ”जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने तो उसकी साख और गिर गई और वह कांग्रेस के हाथों की कठपुतली बन गई।”’
एफिडेविट के अनुसार, इससे गोडसे की जिंदगी में बदलाव आया। इसके मुताबिक, ”हिंदू महासभा खतरनाक हिंदू विरोधी गतिविधियों को रोक पाने में अक्षम साबित होने लगी। जिसे देखकर मैंने हिंदू संगठन आंदोलन को संवैधानिक दायरे में चल पाने की सारी उम्मीदें खो दीं और अपने लिए नया ढूंढने लगा।” धीरे-धीरे गोडसे का गुस्सा बढ़ता चला गया। उसने एफिडेविट में कहा, ”मेरा और हिंदू युवाओं का भरोसा वीर सावरकर और महासभा के अन्य पुराने नेताओं से कम होने लगा। अाजादी के बाद, गोडसे अपने गुरु वीर सावरकर द्वारा सरकार को समर्थन करने की आलोचना करने लगा। उसने पब्लिक प्रॉसीक्यूटर के आरोप कि ‘मुझे वीर सावरकर के हाथों का खिलौना साबित करने” को भी सिरे से खारिज कर दिया। इस बयान को अपने फैसले और कार्य की आजादी की जानबूझकर की गई बेइज्जती बताते हुए उसने अदालत को कहा, ”मैं फिर से कहता हूं कि यह सच नहीं है कि वीर सावरकर को मेरी उन गतविधियों की जरा भी भनक थी जिनकी वजह से मुझे गांधी को गोली मारनी पड़ी। ”