
दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है। भाजपा ने रामजन्मभूमि निर्माण को राजनीतिक मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा और उसे उसका लाभ भी मिला। इसके समानांतर समाजवादी पार्टी ने स्वयं को मुसलमानों का संरक्षक बनाकर पेश किया और उसे भी चुनावी प्रसाद मिलता रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा देकर एक उम्मीद जगाई कि अब उस तरह की राजनीति आगे नहीं होगी। देश की उम्मीद अभी भी टूटी नहीं है’ रामायाण सर्किट का विकास कीजिये, उसके लिए 85 करोड़ लगाकर रामायण संग्रहालय बनावाइए। अयोध्या नगरी की आधारभूत संरचना को विकसित करिए। कोई समस्या नहीं है, यह बात केंद्र के साथ प्रदेश सरकार पर भी लागू होती है।
वह भी अंतरराष्ट्रीय रामलीला संकुल बनाए। वैसे भी राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा विवाद के कारण अयोध्या का विकास पिछले तीन दशकों से ठप है। इस तरह केंद्र एवं प्रदेश सरकार मिलकर या प्रतिस्पर्धा में यदि उसे विकसित करती है तो यह न केवल भारतीय संस्कृति के लिए बेहतर होगा, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और समृद्वि का द्वार भी खुल सकेगा किंतु सारा देश यही चाहेगा कि दोनों पार्टियां इन कामों के राजनीतिक लाभ लेने से परहेज करें। इसे मुद्दा नहीं बनाएं। चुनावी मुद्दा बनाते ही ऐसे कामों का महत्त्व कम हो जाता है। इससे सांप्रदायिक विभाजन का खतरा बढ़ेगा, जो किसी के हित में नहीं होगा। अयोध्या विवाद का सांप्रदायिक विभाजन आज भी डर पैदा करता है। भाजपा की माने तो ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे में उस डर के अंत करने की क्षमता है। पर, क्या लोग मोदी को उसे बनाए रखने देंगे ?
सच है ताली कभी एक हाथ से नहीं बजतीं। सारी पार्टियां भी इसे मुद्दा न बनाएं तभी यह संभव हो पाएगा। अगर पार्टियां इसे वोट का संग्रहालय या वोट का संकुल पुकारेगी तो फिर सारी पार्टियों को जवाब देना होगा और उससे ये अपने-आप चुनावी मुद्दा बन जाएंगे। इसलिए वाणी संयम समय की मांग है। पार्टियाँ राम के लिए राम को चुनावी मुद्दा न बनाएं। बेचारे तिरपाल में हैं, वही रहने दें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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