
उल्लेखनीय है कि इसमें पहला समझौता पाकिस्तान के प्रति सदाशायी है, जिसके तहत उसको 80 फीसद पानी दिया जाता है। माना गया था कि बदले में पाकिस्तान की सद्भावना पाई जा सकेगी और आजादी के तुरंत बाद हुए हमले से सम्बन्धों में उत्पन्न कटुता दूर की जा सकेगी। पर उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ। फिर भारत अकेले ही सद्भाव या बड़प्पन के बोझ तले क्यों दबे? हालांकि सिंधु जल समझौते से बाहर आने में अनेक किंतु-परंतु हैं और मध्यस्थकार विश्व बैंक है।
अगर भारत पाकिस्तान को जल-बहाव धीमा करने के लिए बांध या बिजली संयंत्र स्थापना की जिन तरकीबों पर अमल करेगा, उनके असर दिखने में दशक लग जाएंगे। इसी तरह एमएफएन वापसी से पाकिस्तान का ज्यादा बिगड़ने वाला नहीं है। इसलिए कि उसके साथ भारत का व्यापार बहुत ज्यादा नहीं है। अलबत्ता, चीन के साथ यह किया जाए तो उसकी तिलमिलहाट ज्यादा होगी। तो जिस मायने में पाकिस्तान को नुकसान पहुंचा कर आतंकवाद पर उसको काबू में करने का मंसूबा बांधा जा रहा है, उसमें भारत को ज्यादा फायदा नहीं होने वाला।
यहाँ आशय यह नहीं कि अपने दायरे की कार्रवाइयों से हम बाज आ जाएं। इनका प्रतीकात्मक महत्व भले हो, पर इनको आजमाने में कोई बुराई नहीं है। यह ध्यान में रखते हुए कि सिंधु जल समझौते पर पलटवार के-ब्रह्मपुत्र मामले में चीन से-खतरे हैं। एमएफएन अपने हाथ मे है, इस आपद समय में, जिस भी काम से पाकिस्तान थोड़ा रुक कर अपनी नीतियों पर सोचने के लिए मजबूर हो, वह सब किया जाना चाहिए। यही किया भी जा रहा है ताकि विश्व कल यह न कहे कि युद्ध जो अंतिम विकल्प है, उसको भारत ने पहले पायदान पर रख दिया और टालने के उपाय नहीं आजमाए।
इसलिए सरकार के धीमे किंतु सधे कदमों को एक जिम्मेदार और परिपक्व राष्ट्र का आस्तकारी आचरण माना जा रहा है। इससे एक संदेश यह भी जा रहा है सरकार सिर्फ जायजा लेने वाली बैठक कर रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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