राकेश दुबे@प्रतिदिन। पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के कारण देश में गुस्सा स्वाभाविक है और इसका निशाना उन फिल्मों को बनना ही था, जिनमें पाकिस्तानी कलाकार हैं। देश का गुस्सा इसलिए भी बढ़ गया था, क्योंकि भारतीय फिल्मों मे काम कर करोड़ों कमाने वाले इन कलाकारों में से किसी ने उरी में आतंकवादी हमले की भर्त्सना नहीं की थी और अब धन का दबाव बनाकर राजनीतिक दलों से इस विषय पर समझौत करा लिया। यह देश भक्ति या गुस्सा नहीं है, कुछ और ही है।
गजब ही हो गया, कौन सी फिल्म चलेगी, कौन सी नहीं; यह निर्णय करना सेंसर बोर्ड या सरकार का काम है। जब राजनीतिक दल या संस्था यदि फिल्मों को प्रतिबंधित करने या न चलने की धमकी देने लगे और निर्माताओं के साथ सरकार तक को उसके सामने समझौता करना पड़े यह किसी सामान्य कानून-राज का प्रमाण नहीं हो सकता। इस मामले में ऐसा ही हुआ है, और सरकार ने विरोध करने के बजाय बिचौलिए की भुमिका निभाई। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना एवं उनके नेता राज ठाकरे ने फिल्म को न चलने देने का ऐलान किया। जनता द्वारा चुनाव में ठुकराए जाने के बावजूद यह मामला ऐसा था कि जिसने लोगों को अपील की। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनसे या किसी संगठन को अपना विरोध प्रकट करने का अधिकार है। पर भयादोहन का कतई नहीं। विरोध का प्रकटीकरण भी अहिंसक होना चाहिए। इस तरह के तरीके प्रजातंत्र में अस्वीकार्य होने चाहिए।
इस घटनाक्रम ने साबित किया है कि सिनेमा के व्यवसाय में लगे लोगों के लिए भी कमाई महत्त्वपूर्ण है। करण जौहर के सामने फिल्म में लगा धन डूबने का खतरा पैदा हो गया था। उन्होंने प्रोड्यूसर गिल्ड के साथ मिलकर समझौते की मिन्नतें कीं और यह हो गया। सेना ने इसे उचित नहीं माना और सेना ने 5 करोड़ रुपये राहत कोष में देने को अनुचित करार दिया है।
प्रश्न है कि अगर सरकार ने फिल्म को प्रतिबंधित नहीं किया था तो फिर प्रदर्शन को सुरक्षा देना उसकी जिम्मेवारी थी। वह सिनेमा टिकट की बिक्री पर मोटा कर वसूलती है। इसकी जिम्मेवारी निभाने की बजाय वह किसी गैर सरकारी शक्ति के प्रतिबंध के आगे झुकना किस संस्कृति का प्रतीक है। सोचें देश महत्वपूर्ण या ऐसे समझौते।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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