
हाजमे की गोली टटोल ही रहा था तो देखा 1982 और 1993 की शीशी अभी भरी है। उस वक़्त भी आज का इतिहास, वर्तमान बना हुआ था। लेकिन तब की सरकार शायद शर्मा गयी थी या फिर वाक़ई शहर और लोगों की परवाह नहीं रही होगी। नहीं तो इतने बड़े शहर की पूजा और ताजिया निकले और शान्ति से बीत गए। कहीं कौनो पीके तो फ़िरकी नहीं लिया जा रहा था या अभी किसी जादू ने छूकर अनोखी भाषा में किसी अप्रिय घटना की भविष्यवाणी की थी। या फिर कहा जाए दाढ़ी का तिनका सरक रहा है और मौके का इंतज़ार कर रहा है।
दरसल मौका-परस्ती ऐसी चीज़ होती है जिसके चक्कर में अक्सर लोग अपनी समझ या साफ़ शब्दों में कहें तो नियत को तमगा बना कर घूमते है लेकिन उन्हें समझ ही नहीं आता। ठीक यही हुआ बंगाल की सरकार के साथ। दोहरे रवैये के चक्कर में कहीं के नहीं रहे और पता ही है उन्हें क्या कहते है फिर। आपसी सौहार्द बढ़ाने के बजाए आप अलगाव को बढ़ावा देने के लिए, इतने नीचे गिर जाएँगे यह सिर्फ सियासत की चाल ही जताती है। यहाँ प्रशासन कामचोर नहीं है, बस छुट्टी के माहौल का ज़रा ध्यान है तो बस उसी के जुगाड़ में उसने आसान रास्ता सोचा था कि एक को मना कर दो की 4 बजे के बाद, तुम मूर्ति विसर्जन के लिए मत निकलना और दूसरे को छूट दे दो। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होता, कुछ को मुद्दा, कुछ को मौका मिल जाता। जनता जनार्दन तो सुनती नहीं और प्रशाशन को भी पता है फिर भी ऐसा भेदभावपूर्ण डंडा चलाना ही शायद आज की सियासत बन गयी है।
देखना यह है कि हाई कोर्ट की मुहर पर कोई पानी फिरता है या फिर किसी नए हथकंडे की तलाश होगी। अगर आपसी सौहार्द से जनता रहना भी चाहे तो लगता है कुछ लोग ज़बरदस्ती अपनी खुजली को राष्ट्रीय समस्या बना देना चाहते हैं। बाहर के दुश्मनों से यहाँ फुरसत नहीं मिलती कि अपने ही देश के जयचंद, विभीषण के भेष में अपने को बजरंग बली बताना चाहते हैं। खैर, देखते हैं विसर्जन और तजिया निकलते वक़्त कोई नेता शहीद होता है या नहीं, कम से कम कोई बॉर्डर पर भी हो जाए तो साल याद रह जाएगा।