राकेश दुबे@प्रतिदिन। संसद का शीतकालीन सत्र सरकार के विमुद्रीकरण के फैसले के खिलाफ दोनों सदनों में विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच घामसान के बाद स्थगित है। संयुक्त विपक्ष जहां अपने इस फैसले को जनहित के पक्ष में बता रहा है, वहीं सत्तापक्ष इसे भ्रष्टाचार, काला धन और जाली नोट के खिलाफ छेड़ा गया धर्मयुद्ध कह रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विमुद्रीकरण के फैसले को राष्ट्रीय हित में उठाया गया जायज कदम ठहरा रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने तो इस फैसले के लिये जाने के बाद भावुकता की सीमा लांघते हुए यहां तक कह बैठे कि ‘आप मुझे जला दें तो भी मैं डरने वाला नहीं हूं और जो कदम मैंने उठाए हैं, उन पर डटा रहूंगा। सरकार और प्रशासन के शीषर्तम स्थान पर बैठे किसी व्यक्ति से ऐसी भावुकता की अपेक्षा नहीं की जाती है. लेकिन उनके इस वक्तव्य में दृढ़ता भी झलक रही थी। विपक्ष को भी यह समझना चाहिए कि इस तरह के बड़े फैसले को वापिस लिया जाना मुमकिन नहीं होता; क्योंकि सरकार की विश्वनीयता भी इस फैसले के साथ नत्थी हो गई है। यह सच है कि विमुद्रीकरण के कारण लोगों को अनेक परेशानियां उठानी पड़ रही है।
सरकार के राजनीतिक-प्रशासनिक अधिकारी और बैंककर्मी पिछले कई दिनों से से विमुद्रीकरण से उपजे सभी तरह के संकटों को खत्म करने के लिए दिन-रात जुटे हुए हैं, बावजूद इसके बैंक और एटीएम में मानव कतारें खत्म नहीं हो रही हैं। बाजार पर मुद्रा के सूखे और अकाल के संकट की मार पड़ रही है. यह स्थिति प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के लिए एक सबक भी है। वित्तमंत्री अरुण जेटली भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘कैशलेस इकॉनमी’ की ओर ले जाने का संकेत दे रहे हैं. उन्हें सामाजिक-आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अध्ययन करना चाहिए. यहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह नकदी के लेन-देन पर टिकी हुई है। अगर वित्तमंत्री स्वीडन, नाव्रे और अन्य यूरोपीय देशों की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह कैशलेस इकॉनमी की ओर ले जाना चाहते हैं तो इसकी बुनियादी और अनिवार्य शर्त है-पहले भारत के पिछड़ेपन, गरीबी, अशिक्षा और दरिद्रता को दूर कीजिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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