राकेश दुबे@प्रतिदिन। ऐसा लग रहा है की सरकार अगले साल से वित्तीय वर्ष ही समाप्त कर दे। कैलेंडर वर्ष के साथ ही वित्तीय वर्ष चले। सरकार ने हाल के समय में एक-के-बाद एक कई नीतिगत परिवर्तन संबंधी फैसले किए हैं। जैसे: योजना आयोग को खत्म करके नीति आयोग को अस्तित्व में आना। अब रेल बजट को भी आम बजट में समाहित किया जाएगा। इसी प्रकार मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अधिकारों में कटौती की भी चर्चा है। वैसे आम बजट हर साल 28 फरवरी को पेश किया जाता है और इस पर संसद में चर्चा के उपरांत एक अप्रैल से नया वित्तीय वर्ष आरंभ हो जाता है। अब इसे कैलेंडर वर्ष के साथ चलाने के लिए सरकार की अतिसक्रियता दिख रही है। दरअसल, हमने जो शासन प्रणाली अपनाई है, वह ब्रिटिश प्रणाली का ही प्रतिरूप है। इसके अलावा, कुछ नीतिगत फैसले भी हमने लोकतंत्र की राह पर चल पड़ने के साथ ही तय कर लिये थे। कुछ मानक अपने लिए तय कर लिए थे। इनके पालन से एक किस्म का अनुशासन आता है।
वैसे, इन्हें बदलने भर से कोई ज्यादा सक्षमता आ जाने जैसी कोई बात तो होती ही नहीं लेकिन जिस प्रकार से हाल के समय में मानकों और जमी-जमाई संस्थाओं का आकार-प्रकार ही बदल दिया गया है, उसे किसी उपलब्धि में शुमार करना किसी भूल से कम न होगा। अगर इस प्रकार के फैसले लिये ही जाने हैं, तो लोकतंत्र का तकाजा है कि उनके गुणदोष की परख हो। फैसले सर्व समावेशी हो।
जैसे नोटबंदी का अचानक किए गए फैसले से लोगों की दुश्वारियां बढ़ी हैं। खबरें हैं कि नोटबंदी के चलते अब तक 36 मौतें हो चुकी हैं। कोई भी नीति या फैसला एकाएक भले ही किया जाए लेकिन उसमें सर्वसम्मति झलकनी चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए