2017 पर 2016 की परछाई रहेगी

राकेश दुबे@प्रतिदिन। तनाव में गुजरे 2016 में ही सबसे बड़े तनाव काले धन के खिलाफ प्रधानमंत्री के उठाए गए कदम ‘नोटबंदी’ ने पूरी कर दी। इसकी घोषणा करते हुए मोदी जी ने कहा था कि यह मेरा फैसला है। मगर इस बारे में उनका संसद में न बोलना या एक जिद पकड़ लेना टकराव को न्योता दे गया। बेशक विपक्ष भी अपनी बातों पर अड़ा रहा और संसद का शीतकालीन सत्र बेकाम चला गया, मगर सवाल किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष का नहीं है। 

सवाल यह है कि बतौर संस्था संसद नहीं चल सकी। मानो इसके महत्व को कम करने की कोशिश हुई। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का इसे लेकर भावुक होना और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का चिंता जताना यही बताता है कि भारतीय राजनीति में किस हद तक कटुता आ गई है। यदि संसदीय लोकतंत्र में इस हद तक मनमुटाव हो जाए, तो यह भविष्य को लेकर स्वभाविक चिंता पैदा करती है। कहीं न कहीं प्रधानमंत्री और सत्ता पक्ष को ऐसे कदम उठाने चाहिए थे कि तस्वीर बदल जाए। मगर ऐसा नहीं हो सका।

तनाव के हालात कश्मीर में भी रहे, जिसका प्रतीक बुरहान वानी बना। इस वर्ष कश्मीर में जिस हद तक अलगाव की भावना बढ़ी है, वह पहले शायद ही दिखी। इससे पहले चंद ही ऐसे मौके आए हैं, जब वहां आजादी के यूं नारे लगे। मेरे विचार से इस तरह की भावना साल 1987 के चुनाव के बाद तेज हुई थी, जिसमें जीत तो मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) की हुई थी, पर बाद में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने उसमें हेरफेर कर दी। फिर दूसरी बार दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद की रिहाई के एवज में पांच आतंकियों को छोड़ने के बाद आजादी की मांग उठी। मगर अभी की भावना काफी गहरी है और गांव-गांव तक फैल गई है। माना तो यह गया था कि जब सरकार बनाने के लिए भाजपा और पीडीपी एक साथ आएंगे, तो जम्मू और घाटी की अलग-अलग भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने का प्रभाव काफी गहरा होगा। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का बाद कहा था कि वह नरेंद्र मोदी को दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी के तौर पर देखना चाहेंगे। मगर इस साल हालात उम्मीद के बिल्कुल उलट दिखे।

इसी तरह, उरी-पठानकोट हमले और अंत में बतौर जवाबी कार्रवाई की गई सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान के साथ टकराव बढ़ने की गवाही दे रही है। हालांकि साल २०१५ के दिसंबर में नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा कदम उठाया था और पाकिस्तान के अपने समकक्ष नवाज शरीफ को जन्मदिन की शुभकामना देने लाहौर चले गए थे, पर साल 2016 में भारतीय उप-महाद्वीप में तनाव ही पसरा रहा।

हालांकि साल के आखिरी महीनों में नोटबंदी का फैसला तमाम मसलों पर भारी पड़ता दिखा। यह दिखाता है कि प्रधानमंत्री काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ करना चाहते हैं। उन्हें कड़े कदम उठाने से भी परहेज नहीं। मगर अब जो दिख रहा है, वह यही कि इस कदम को उठाने से पहले उचित तैयारी नहीं की गई थी। स्थिति यह है कि लोग अभी तक परेशान हैं, जबकि 50 दिन का वक्त खत्म हो चुका है। वैसे, इसकी दूसरी तस्वीर यह है कि लोग अब भी इस फैसले के साथ हैं। तमाम मुश्किलों के बाद भी वे गुस्से में नहीं हैं। यह बताता है कि प्रधानमंत्री मोदी से लोगों को कितनी आशाएं हैं। हां, अगर स्थिति खराब होती गई, तो यह आस्था गुस्से में बदल सकती है। तब यह फलसफा चरितार्थ हो सकता है कि भक्ति और इश्क यदि आक्रोश में बदल जाए, तो उसकी पीड़ा जबर्दस्त होती है। इसलिए कहीं न कहीं सरकार को संभलने की जरूरत है। संभव है कि इसे लेकर काम हो रहा हो, क्योंकि सुनने में यही आ रहा है कि अगले साल कर्ज में छूट मिल सकती है या टैक्स की दरों में कमी आ सकती है।

रही बात विपक्ष की, तो उसने पूरे साल हाथ-पैर ही मारे। उसे यह आभास हो चला है कि यदि सामने नरेंद्र मोदी जैसी शख्सियत हो, तो कोई पार्टी अकेले नहीं जीत सकती। इसलिए उन्हें एक साथ आना ही होगा। इस दिशा में कुछ दल आगे बढ़े। संसद में एक तरह का आपसी सहयोग भी बना। मगर साल के अंत-अंत तक इसमें टूटन साफ दिखने लगी। नोटबंदी पर ही नीतीश कुमार के अलग सुर हैं, जबकि मंग राहुल गांधी की बुलाई बैठक से कुछ दलों ने किनारा कर लिया। यह विपक्ष की एकता में आई दरार बता रहा है। असल में, विपक्ष की तरफ देश तभी देखेगा, जब प्रधानमंत्री मोदी को लेकर लोगों में गुस्सा बढ़ेगा। और इसका पता आगामी विधानसभा चुनावों से ही चलने लगेगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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