राकेश दुबे@प्रतिदिन। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राष्ट्रीय और राजकीय राजमार्गों के किनारे शराब की दुकानों का लाइसेंस 31 मार्च के बाद नवीनीकरण न किया जाने का आदेश दिया है। शीर्ष अदालत ने राजमार्गों के किनारे लगे शराब की दुकानों के संकेतक भी हटाने का निर्देश दिया है। अदालत ने पिछले सप्ताह ही इस मामले पर सुनवाई करते हुए सड़क हादसों में होने वाली मौतों पर चिंता जताकर अपने रुख का संकेत दे दिया था। अदालत ने पंजाब सरकार द्वारा इस मामले में रियायत दिए जाने की अपील पर भी सख्त टिप्पणी की थी और याद दिलाया था कि उसने किस तरह लोगों की जान की परवाह न करके शराब की दुकानों के लाइसेंस महज राजस्व कमाने के लिए बांट रखे हैं।
शीर्ष अदालत का फैसला स्वागत योग्य और टिप्पणियां आंख खोलने वाली हैं। सच है कि रफ्तार का प्रतीक बन चुके किसी भी राजमार्ग के किनारे शराब की दुकान नहीं होनी चाहिए। इनके कारण होने वाले हादसे किसी से छिपे नहीं हैं। राजमार्गों पर सफर करते वक्त सड़क किनारे की ये दुकानें इसलिए भी बहुत पहले हटा दी जानी चाहिए थीं कि इनकी मौजूदगी न चाहते हुए भी किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। युवा इसके कुछ ज्यादा ही शिकार बनते हैं। ऐसे में, यह फैसला बहुत जरूरी था, बल्कि बहुत पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन इस समस्या का सिर्फ यही समाधान नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि देश भर में होने वाले सड़क हादसों का सत्तर प्रतिशत शराब पीकर वाहन चलाने से होते हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी शराब पीकर गाड़ी चलाने से होने वाले हादसों का यही प्रतिशत है। सच है कि शराब पीकर ड्राइविंग हतोत्साहित करने के लिए नियम सख्त हुए हैं। दिल्ली में शराब पीकर ड्राइविंग के मामले में सजा देने का प्रतिशत सात गुना और मुंबई में १६ गुना बढ़ा है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि हादसे फिर भी कम नहीं हुए।
नियमों को ठेंगा दिखाना या उनका मजाक उड़ाना हमारी फितरत में है। वरना कोई कारण नहीं कि तमाम नियमों के बावजूद हम अभी तक दुपहिया चलाते हुए हेलमेट लगाने और कार चलाते वक्त सीट बेल्ट लगाने के अभ्यस्त नहीं हो पाए। दुर्भाग्य यह कि हमने इसका पालन पुलिस से बचने के लिए किया, न कि अपनी जान जोखिम में डालने से बचने के लिए। होना तो यह चाहिए कि कानून का सहारा लेकर इसका अनुपालन इतना सख्त कर दिया जाए कि कोई शराब पीकर गाड़ी चलाने की हिम्मत ही न करे। वैसे बात सिर्फ कानून से नहीं बनेगी। यह आत्मानुशासन का सवाल भी है। अब यह आंकड़ा दिखाने का वक्त भी नहीं है कि शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों से कितना जुर्माना वसूला गया, बल्कि यह आंकड़ा दिखाने की जरूरत है कि ऐसे मामले में कितनों को जेल भेजा गया या कितने लाइसेंस रद्द हुए? यहां कर्नाटक का उदाहरण बहुत अच्छा है, जहां शराब पीकर ड्राइविंग के मामले में चालक के पास वाहन वहीं छोड़कर किसी अन्य माध्यम से घर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। यदि साथ का कोई व्यक्ति लाइसेंस के साथ मौजूद हो, तो उसे वाहन ले जाने की अनुमति है, लेकिन पकड़े गए चालक का लाइसेंस जब्त करने के बाद। उसे उस वाहन से जाने भी नहीं दिया जाता। लाइसेंस बाद में कोर्ट के जरिये ही मिलता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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