
अदालत ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को यह आदेश भिजवाकर, केंद्र सरकार से एक सप्ताह में इसका क्रियान्वयन शुरू कराने को कहा है। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की परंपरा बहुत पुरानी है। साठ और सत्तर के दशक तक यह परंपरा बहुत समृद्ध थी। सिनेमाघरों मेंफिल्म खत्म होने के तुरंत बाद राष्ट्रगान होता था। धीरे-धीरे इसमें क्षरण आया। सिनेमा खत्म होते ही निकलने की जल्दबाजी में कई बार लोग ठहरकर खड़े नहीं होते थे या फिर भीड़ छंटने के इंतजार में बैठे रहते थे। इस तरह राष्ट्रगान का अपमान होता था। धीरे-धीरे देशभक्ति का यह अनुष्ठान पहले कमजोर पड़ा, फिर न जाने कब बंद हो गया। कुछ उत्साही लोगों की मांग पर महाराष्ट्र सरकार ने भी साल 2002 में राज्य के तमाम सिनेमाघरों में शो शुरू होने से पहले राष्ट्रगान का प्रदर्शन अनिवार्य कर दिया था।
इसमें कोई शक नहीं कि कहीं दूर से आती राष्ट्रगान की ध्वनि भी अद्भुत रोमांच का एहसास कराती है। इस आदेश के पीछे मंशा इसके साथ ही सम्मान को जोड़ने की है। ऐसा नहीं है कि हम देशवासी राष्ट्रगान का सम्मान नहीं करते, लेकिन यह भी सच है कि सामूहिक कर्म अलग और व्यापक असर छोड़ता है। स्वाभाविक है, जब सिनेमाहॉल में मौजूद लोग एक साथ सावधान की मुद्रा में खड़े होकर राष्ट्रगान के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करेंगे, तो एक नई सोच आकार लेगी और नई पीढ़ी तक एक नया संदेश जाएगा। आज के भाग-दौड़ के समय में संभव है कि हमारे पास देश के लिए सोचने का अलग से वक्त न हो, लेकिन महज ५२ सेकंड के लिए थोड़ा ठहरकर, खड़े होकर हम देश के प्रति समर्पण व सम्मान का भाव तो प्रदर्शित कर ही सकते हैं।
सच है कि फैसले पर हम अपने अंदर ही सही, बहस तो जरूर करेंगे, लेकिन क्या जरूरी नहीं है कि हम अपने आप से ही टकराएं और देखें कि क्या हम वाकई सही सोच रहे हैं? हां, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम की इस धारा के साथ कुछ एहतियात भी बरतने होंगे।वही एहतियात, जिन पर ध्यान न देने के कारण एक परंपरा कई दशक पहले खत्म हो गई थी। हमें उस वक्त इस परंपरा के खत्म होने की वजहें भी तलाशनी होंगी। सोचना होगा कि राष्ट्रगान का एक नियम है, एक संस्कार है-पूरे देश के सिनेमाघरों में इसे कैसे सुनिश्चित किया जाये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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