राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में धन-बल का कितना और कैसा महत्व है सब जानते हैं । चुनाव आयोग ने चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के लिए कानून में संशोधन की सिफारिश कर इस बहस को एक नया आयाम दे दिया है। आयोग ने राजनीतिक दलों को दो हजार या इससे अधिक मिलने वाले गुप्त चंदे पर रोक लगाने की सिफारिश की है। अभी तक यह सीमा बीस हजार रुपये है। देश में चल रही काले धन पर रोक की मुहिम और राजनीति की शुचिता की बहस के बीच आयोग का यह कदम स्वागतयोग्य है।
नोटबंदी की घोषणा के बाद काले धन पर अंकुश से पहले राजनीति में ‘धन-बल’ पर रोक की बहस आम है। हम बस कल्पना कर सकते हैं कि वह दिन कैसा होगा? यहां असहमत होने का कोई कारण नहीं कि चुनावों में इस्तेमाल होने वाला ‘धन-बल’ देश में सारे भ्रष्टाचारों की जड़ है और यह भी छिपा नहीं है कि चुनाव में जीत के लिए जिस तरह नैतिकताओं की बलि दी जाती है, उसी तरह सत्ता में आने के बाद ऐसी पार्टियां या लोग धनार्जन के लिए सारी नैतिकताओं को तिलांजलि दे देते हैं। इसकी परिणति वृहत्तर सामाजिक भष्टाचार के रूप में होती है।
ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे पर कभी बहस नहीं हुई। बहस तो हुई, लेकिन यह सब सिर्फ बड़े-बड़े भाषणों या समितियों की बैठकों तक सीमित रहा। ईमानदार कोशिश कभी नहीं हुई। अब तक की शायद सबसे सार्थक पहल १९९९ में हुई, जब इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने चुनावों में आंशिक रूप से राज्य-पोषित फंडिंग की सिफारिश की थी। साथ में राजनीतिक दलों के अपने भीतर एक ‘वास्तविक आंतरिक लोकतंत्र’ जैसी कुछ शर्त भी लगाई थी, जो किसी दल के गले नहीं उतरी। मार्च २०१५ में लॉ कमीशन ने भी अपनी २५५ वीं रिपोर्ट में चुनाव सुधारों की जरूरत को बहुप्रतीक्षित बताया।
दरअसल, चुनाव सुधार की बात, चुनाव प्रक्रिया और इसका जमीनी सच अंतर्विरोधों से भरा है। सच तो यही है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बिना धन-बल वाले निर्वाचन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र तभी बचेगा, जब यहां हर कोई अपने बूते चुनाव लड़कर निर्वाचित होने का सपना देख सकेगा, और यह तभी संभव होगा, जब यह सुनिश्चित होगा कि निर्वाचन सिर्फ धनिकों की चीज नहीं रहेगा, यानी बिना धन-बल वालों के भी सदनों में पहुंचने के हालात बनेंगे।
यह सब कैसे होगा? चुनाव में अधिकतम खर्च की सीमा तो अब भी तय है, लेकिन क्या वाकई इसका पालन होता है? सब जानते हैं कि कई-कई गुना ज्यादा खर्च करके भी प्रत्याशी निर्वाचन आयोग के नियमों से बच निकलते हैं।
यदि कोई फंसता भी है, तो प्रक्रिया इतनी जटिल है कि फैसला आने तक संबंधित व्यक्ति अपना कार्यकाल पूरा करके किसी और मुकाम तक पहुंच चुका होता है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं। २०१४ के चुनावों की ही बात करें, तो इसमें प्रचार पर करीब ३० हजार करोड़ के खर्च का अनुमान आया था। है कहीं कोई हिसाब कि इतना धन कहां से आया? कहीं कोई पारदर्शिता नहीं। जाहिर है, हो भी नहीं सकती, क्योंकि चंदा देने वाले को भी बचाने का ‘नैतिक दायित्व’ इन्हीं पर है।
चुनाव आयोग तो न जाने कब से पूरी निर्वाचन प्रक्रिया में ही पारदर्शिता की बात कर रहा है। आयोग के तयशुदा पैनल से राजनीतिक दलों के वार्षिक ऑडिट की बात किसी दल को नहीं सुहाई। होना तो यह चाहिए था कि इस ऑडिट के बाद दल अपना लेखा-जोखा स्वयं सार्वजनिक करते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब जब काले धन पर इतनी तगड़ी चोट हुई है, उम्मीद की जा सकती है कि ऑडिट वाली बात स्वीकार कर बड़ी नजीर पेश की जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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