
यह सच है कि ये दल कालेधन को सफेद करने का काम करते हैं। वैसे तो सरकार ने आयोग की मांग को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया है पर क्या उसमें इतना साहस है कि वह राजनीतिक दलों को चंदे में मिलने वाली छूट को पूरी तरह समाप्त कर दे? अगर वह वाकई ब्लैक मनी के खिलाफ अभूतपूर्व कदम उठाना चाहती है तो वह तत्काल ऐसा करे।राजनीतिक पार्टियों को 20 हजार रुपये की भी छूट क्यों मिलनी चाहिए? बेहतर तो यह होगा कि वे एक-एक पैसे का हिसाब दें ताकि शक की कोई गुंजाइश ही न बचे। पार्टियां खुद ही आगे बढ़कर क्यों नहीं यह बात कह रही हैं? क्या सारी नसीहतें सारे नियम-कायदे आम जनता के लिए ही हैं? यह बात अब छुपी हुई नहीं रह गई है कि कालेधन के कारोबारी वर्तमान प्रावधान का किस तरह फायदा उठा रहे हैं।
अभी पार्टियों को 20000 रुपये से कम के चंदे का कोई ब्योरा देने की आवश्यकता नहीं है। इस पर उन्हें टैक्स भी नहीं देना पड़ता। इसलिए प्राय: सभी राजनीतिक दल यही बताते हैं कि उन्हें चंदे के तौर पर मिली कुल रकम में बड़ा हिस्सा वह है, जो 20 हजार रुपये से कम राशि में मिला।आमतौर पर यह हिस्सा 75 प्रतिशत से अधिक होता है। चुनाव आयोग यह कह-कह कर थक गया कि राजनीतिक दलों के खातों का ऑडिट कैग की ओर से सुझाए गए ऑडिटर करें, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं। वे सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने के लिए भी तैयार नहीं। उनसे कोई पूछ नहीं सकता कि उनकी किसी रैली पर कितना खर्च हुआ?
आखिर ये सब जनता कब तक बर्दाश्त करेगी? सरकार आखिर क्यों नहीं पार्टियों से कहती है कि वे भी कैशलेस चंदा लें? बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। चंदे की व्यवस्था को बदलना ही होगा।गोविन्दाचार्य जी की बात को बहुत से संगठन दोहराते है ऐसे सभी संगठनों को एक साथ आकर चुनाव सुधार के इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लें चाहिए। चुनाव सुधार जरूरी है, यही देश में और दूसरे सुधारों का मूल है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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