
जजों ने कहा कि अदालत बेहद चुनिंदा मामलों में पीड़िता से उसके बयान की पुष्टि करने वाले अन्य सबूतों की मांग कर सकते हैं। जजों ने यह भी कहा कि जब भी अदालत पीड़िता से ऐसा सबूत पेश करने की मांग करे, तब अदालत के पास इसके लिए ठोस कारण होने चाहिए।
खंडपीठ ने कहा, 'अदालत द्वारा पीड़िता से उसके बयान का समर्थन करने वाले सबूत मांगना उसकी पीड़ा को अपमानित करने जैसा है। रेप पीड़िता सह-अपराधी नहीं होती। उसके बयान को बिना अन्य सबूतों के भी तवज्जो दी जा सकती है। ऐसे मामलों में पीड़िता का दर्जा ऊंचा होता है।' जस्टिस सिकरी ने यह फैसला लिखा। उन्होंने कहा कि अपने साथ बलात्कार होने की शिकायत करने वाली महिला या लड़की को 'संदेह, अविश्वास और शक' की निगाह से नहीं देखा जाना चाहिए। अदालत ने आगे कहा, 'अगर अदालत को पीड़िता का बयान स्वीकार करने लायक ना लगे, तो उस स्थिति में कोर्ट उससे उसके आरोपों की पुष्टि के लिए कुछ अन्य सबूत पेश करने के लिए कह सकते हैं।
ऐसा बेहद चुनिंदा मामलों में ही होना चाहिए। कोर्ट द्वारा पीड़िता पर सबूत देने का जोर देना उसके साथ अपराधी के समान व्यवहार करना है और यह उसका अपमान है। किसी महिला से यह कहना है कि बलात्कार के उसके दावे पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता, जबतक कि वह इसके लिए सबूत पेश ना करे, उस महिला के लिए बेहद अपमानजनक होगा।'
अदालत ने यह फैसला एक शख्स द्वारा अपनी 9 साल की भांजी के साथ किए गए बलात्कार के मामले में सुनाया। कोर्ट ने दोषी को 12 साल जेल की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने उस फैसले को भी रद्द कर दिया, जिसके तहत HC ने मां और बेटी के बयानों में हल्का अंतर होने के कारण आरोपी को बरी कर दिया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि पीड़िता के परिवार द्वारा इस मामले की FIR दर्ज करवाने में देर हुई। मालूम हो कि अपराध के 3 साल बाद पीड़ित परिवार ने केस दर्ज कराया था। हाई कोर्ट ने आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि केस दर्ज करवाने में हुई देरी के कारण रेप पीड़िता के आरोपों को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में सामाजिक मान्यताओं और शर्म के कारण अक्सर शिकायत देर से की जाती है।