
इस पर नैशनल रेस्त्रां असोसिएशन ऑफ इंडिया ने दलील दी कि सर्विस चार्ज पूरी तरह से उपभोक्ता कानून के तहत लगाया जाता है। अगर लोगों को सर्विस चार्ज नहीं देना है तो वे रेस्तरां में खाना न खाएं। इस तरह सरकार ने रेस्तरां मालिकों और ग्राहकों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। अभी आलम यह है कि आप होटलों और रेस्तराओं में खाने जाएं तो जो बिल आता है, उसका मेन्यू में लिखे रेट से कोई मेल नहीं रहता। दरअसल खाने पर सरकार सर्विस टैक्स लगाती है और रेस्तरां वाले सर्विस चार्ज लगाते हैं। सर्विस टैक्स की प्रभावी दर बिल की ६ प्रतिशत रहती है, जबकि सर्विस चार्ज 5 से 20 प्रतिशत तक लगाया जाता है।
सर्विस टैक्स सरकार के खजाने में जाता है और सर्विस चार्ज वसूलने वाले की जेब में। होटल मालिक कहते हैं कि वे सर्विस चार्ज से प्राप्त कमाई को अपने कर्मचारियों के बीच बांटते हैं। जो भी हो, अभी खाने के बिल को लेकर भारी असमंजस है। हमारे देश में फूड सेक्टर बड़ी तेजी से विस्तार कर रहा है। मध्यवर्ग इसका सबसे बड़ा उपभोक्ता है। दरअसल ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जो मध्य वर्ग उभरकर आया है वह अपने भोजन पर पहले से ज्यादा खर्च करने लगा है। अब वह केवल पेट भरने के लिए नहीं, शौक के लिए भी बाहर खाने लगा है।
पहले वह खाने का लुत्फ लेने के लिए विशेष अवसरों की प्रतीक्षा करता था, अभी ऐसा रोज कर सकता है। बाजार ने उसके सामने पूरी दुनिया की रसोई खोल दी है। महानगरों में ही नहीं छोटे शहरों और कस्बों तक में अंतरराष्ट्रीय फूड चेन पहुंच गए हैं। उन्होंने लोगों की फूड हैबिट पर गहरा असर डाला है। भागदौड़ की जिंदगी में बाहर जाकर खाना शहरों की न्यूक्लियर फैमिली को राहत देता है। ऐसे परिवार, जिसमें पति-पत्नी दोनों काम करते हैं, काफी हद तक होटलों के खाने पर निर्भर रहने लगे हैं। पर इस सेक्टर को रेगुलेट करने की जरूरत है।
एक व्यवस्थित सेक्टर की पहचान यह है कि वहां सब कुछ पारदर्शी रहे। चीजों की कीमत और उन पर लगने वाले कर की मात्रा भी एकदम साफ रहनी चाहिए। ग्राहक को यह नहीं लगना चाहिए कि वह ठगा जा रहा है, गुपचुप कीमतों के रूप में उससे ज्यादा वसूला जा रहा है। लिहाजा सरकार को अन्य क्षेत्रों की तरह इस बारे में भी स्पष्ट नीति बनानी चाहिए और उसे सख्ती से लागू करना चाहिए। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि उपभोक्ता सर्विस चार्ज से खुद निपट लें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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