
अजीब तर्क दिया जा रहा है “मंदी से ठीक पहले कर्जदाता वित्तीय संस्थानों के बारे में अपनी जो राय जाहिर की थी, वह प्रफेशनल ढंग से निकाले गए इनके नतीजों की अभिव्यक्ति भर थी-“इस गलती को यदि दुसरे पैमाने , जैसे किसी डॉक्टर का ऑपरेशन मरीज के लिए जानलेवा साबित हो सकता है या कोई वकील पूरी तैयारी के साथ बहस करने के बावजूद अपना केस हार सकता है- तो अमेरिकी अदालतें शायद इनकी मान्यता ही रद्द कर देतीं। ये सिर्फ जुर्माने से छूट गई। अमेरिका में मंदी की शुरुआत वहां के विशालकाय बैंकों और बीमा कंपनियों द्वारा हाउसिंग और रियल एस्टेट सेक्टर में दिए गए सबप्राइम कर्जे डूब जाने से हुई थी। यह ऊपर से नीचे तक शुद्ध घपला था।
अमेरिकी यर्ज पर बैंकों और बिल्डरों का यह मिला-जुला आत्मघाती खेल भारत में भी जारी है, हालांकि यहां छोटे कर्ज के मामले में बैंकों पर बंदिशें अमेरिका से ज्यादा हैं। अपने यहां असली खेल बड़े औद्योगिक कर्जों में होता है, जिसके नतीजों के बारे में रघुराम राजन ने अपने कार्यकाल के आखिरी साल में सरकार को साफ-साफ बता दिया था। उनके जाने के बाद सख्ती का स्तर क्या है, फिलहाल कोई नहीं जानता।भारत में तो हमें यही नहीं पता होता कि जिस बिल्डर के यहां हमने अपना घर बुक कराया है, तीन साल से इसके लिए उठाए गए लोन की किस्तें चुका रहे हैं, उसके पास जमीन भी है या नहीं, बल्कि घर बुक करने वाला बिल्डर भी है या नहीं। धूमधाम से शेयर खरीदते हैं, पॉलिटिकल माहौल के साथ उसके चढ़ने पर खुश होते हैं लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करते कि जिस कंपनी का यह शेयर है, उसका हकीकत में कोई काम-धंधा है या नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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