राकेश दुबे@प्रतिदिन। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट ने साफ़-साफ़ कहा है कि धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट मांगना गैर-कानूनी है। उम्मीदवार के साथ-साथ उसके प्रतिनिधि, अन्य राजनीतिक और धर्मगुरु भी अब इस फैसले के दायरे में आएंगे। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है। अगर इसे लागू करवाने में चुनाव आयोग सफल हो सके तो हमारे लोकतंत्र के लिए यह आदर्श स्थिति होगी। व्यावहारिक रूप में इसे लागू करने में काफी कठिनाइयां आएंगी। हालांकि इससे पहले भी जाति या धर्म के नाम पर वोट मांगने को गैर-कानूनी बताया गया था।
दरअसल, इसका प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून में शुरू से ही रहा है। संविधान पीठ के ताजा फैसले से उस प्रावधान को और बल मिला है तथा पांच राज्यों के चुनावों से पहले एक जरूरी संदेश गया है। उम्मीदवार ही नहीं, पार्टी के प्रतिनिधि और अन्य लोग भी चुनाव प्रचार के दौरान धर्म या जाति के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर सकेंगे। जाहिर है, इससे राजनीतिक दलों को परेशानी होगी, जो धर्म और जाति के नाम पर वोट बैंक कबाड़ने की जुगत में लगे रहते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अगर हुबहू लागू हो जाए तो भारत दुनिया का एक आदर्श लोकतंत्र बन जाएगा, पर इसे लागू करना आसान काम नहीं होगा क्योंकि यहां तो कई राजनीतिक दलों का गठन ही क्षेत्र, धर्म और नस्ल के आधार पर हुआ है। कुछ राजनीतिक दलों की स्थापना के मूल में जाति की अस्मिता रही है। हालांकि कई राष्ट्रीय दल विचारधारा के आधार पर अपने संगठन को चलाने का दावा जरूर करते हैं, पर चुनावों के दौरान जाति और धर्म का इस्तेमाल इनके उम्मीदवार और समर्थक भी करते हैं। अब चुनावों में जाति और धर्म का इस्तेमाल न हो इसे लागू करने की जिम्मेवारी चुनाव आयोग की होगी| आयोग इसे लागू करवाने में कितना सफल होगा यह समय बताएगा। क्योंकि जाति और धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने की तरकीबें चुनावी भाषणों और नारों तक सीमित नहीं रही हैं। जातिगत सम्मेलनों में शिरकत करना, मजहबी जलसों में शामिल होना, मंदिरों में दर्शन और धार्मिक समारोहों में भागीदारी, पूजा-क्लबों को आर्थिक सहायता आदि ढेर सारे तरीके हैं जिनसे उम्मीदवार और अन्य राजनीतिक मतदाताओं को अपना इच्छित ‘संदेश’ देते रहते हैं।
अभी तक आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती निष्पक्ष चुनाव करवाने और चुनावों में होने वाली धांधली को रोकने की रही है। चुनावी हिंसा को रोकने में आयोग तो काफी सफल रहा है, लेकिन मतदाताओं को प्रभावित करने वाले भ्रष्ट तरीकों को रोकने में आयोग को वैसी सफलता नहीं मिली है जैसी मिलनी चाहिए थी। चुनावों में पैसे बांटने से लेकर शराब बांटने तक का खेल चलता है। संस्थाओं और क्लबों को भी पैसे बांटे जाते हैं। कुछ सालों से ‘पेड न्यूज’ के किस्से भी सामने आते रहे हैं। यह सब भी जनप्रतिनिधित्व कानून और चुनाव संबंधी अन्य कानूनों के मुताबिक अपराध है। मगर क्या इस सब पर रोक लग पाई है? ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जाए कि सर्वोच्च अदालत के ताजा आदेश पर पूर्णत: अमल होगा?
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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