राजनीति नहीं चुनौतियों पर नजर हो

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। 67वें गणतन्त्र दिवस पर भारत के सामने सामने अब जो प्रश्न खड़े हैं, उनका संबंध भविष्य से है। यह जानते हुए भी हममें से ज्यादातर की सोच अभी अतीत में ही अटकी हुई है। अब तक के अनुभवों पर नजर डालें, तो लगता है बहुत कुछ किया जा सकता था , जिसे करने में हमारी प्राथमिकता नहीं रही।

बीते समय में हमने तीन युद्धों की बदौलत अपनी सीमाओं के प्रति सचेत एक आक्रामक राष्ट्रवाद की सृष्टि की, जिसकी जड़ में रक्षात्मक सोच ही थी। फिर हम सत्ताशीर्ष से लगातार देश पर मंडरा रहे खतरों की चर्चा सुनने लगे। अस्सी के दशक के मध्य से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक कभी अलगाववादी आंदोलनों और क्षेत्रीय दावेदारियों का जोर रहा तो कभी मंडल-कमंडल का।इसके बावजूद  दौर में देश आर्थिक सुधारों की राह पर चल निकला। इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर हमारा सामना अधूरे कार्यकाल वाली कई कमजोर गठबंधन सरकारों से हुआ। लेकिन सदी बीतते-बीतते पूर्णकालिक सरकारों का दौर शुरू हो चका था, हालांकि वे भी गठबंधन सरकारें ही थी।

बावजूद इसके, देश की एकता-अखंडता और संप्रभुता पर कोई खतरा उपस्थित नहीं हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी बनाकर दे दी। आज देश की राजनीति पर नजर डालें तो कहीं भी क्षेत्रीय या सामुदायिक आकांक्षाओं की मारामारी नहीं नजर आती। ऐसे मुहावरों में बात करने वाली पार्टियों ने भी अब राष्ट्रीय शब्दावली अपना ली है। अंग्रेजी विरोध के नारे लगाने वाले दल लैपटॉप बांट रहे हैं। साफ है कि भारतीय समाज अब जरूरतों से ज्यादा वजन आकांक्षाओं को देने लगा है।

देश प्रगति के पथ पर है। भारत की अगुवाई करने वाली राजनीति को भी विशाल हृदय और भविष्योन्मुख होना चाहिए। सारे सवालों के जवाब पुराने नैतिक उपदेशों और धर्मग्रंथों में तलाशने वाले लोग इस नए भारत में कुछ देर के लिए मदारी का मजमा जरूर लगा सकते हैं, लेकिन ज्यादा दूर तक इसका साथ नहीं दे सकते। इसका नेतृत्व वही कर सकेगा, जिसकी निगाहें इसके सामने मौजूद चुनौतियों पर होंगी। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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