
हालांकि सरकार का यह फैसला नोट वापसी के बाद किसानों को आई परेशानियों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है लेकिन चुनाव का समय है तो इसका राजनीतिक निहितार्थ निकाला ही जाएगा। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला किया। हालांकि उस पर अदालत का डंडा चल गया है, लेकिन यह तो कहा ही जाएगा कि अखिलेश ने यह फैसला ऐन चुनाव के पूर्व लेकर उन जातियों को अपने पक्ष में करने यानी उनका मत लेने के लिए किया।
भारतीय राजनीति के सामने यह प्रश्न लंबे समय से मुंह बाये खड़ा है कि चुनाव की घोषणा के बाद ऐसे निर्णय किए जाने चाहिए या नहीं जिनसे मतदाताओं के प्रभावित होने की संभावना हो? दलों द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकृत आचार संहिता की भाषा इसका निषेध करती है।
प्रश्न यह भी है कि यदि देश में सरकारें हैं, तो वे इतने समय तक आवश्यक कदम कैसे नहीं उठाएंगी? यह ऐसा प्रश्न है जिसका तार्किक उत्तर किसी के पास नहीं। शीर्ष अदालत ने 1 फरवरी को बजट पेश करने के निर्णय को रोकने की अपील वाली याचिका खारिज करते हुए कहा है कि देश में हर समय चुनाव चलते रहते हैं तो फिर बजट कभी पेश ही नहीं हो सकता। वास्तव में सरकारें हैं तो कुछ जरूरी निर्णय करने होंगे।
यहां पर मतदाताओं के विवेक और जागरूकता का प्रश्न सामने आ जाता है। मतदाता इतने विवेकशील हों कि ऐसे निर्णयों से प्रभावित हुए बिना मतदान करें। दूसरे, राजनीतिक दल स्वयं को ऐसी नैतिक परिधि में बांधें कि सत्ता हाथ में हो तो उसका उपयोग वोट लेने के लिए न करें किंतु इससे बचने का जो सबसे बेहतर रास्ता है, वह है लोक सभा एवं विधान सभाओं का चुनाव एक साथ संपन्न करा लेना।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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