राकेश दुबे@प्रतिदिन। 2016 में शायद ही कोई ऐसा महीना रहा हो, जिसमें अरुणाचल प्रदेश से राजनीतिक उथल-पुथल की खबर न आई हो। बहुदलीय व्यवस्था में आप जितने भी तरह के गड़बड़-झाले की कल्पना कर सकते हैं, वे सब अरुणाचल में दिखाई दे चुके हैं। थोक भाव में दल-बदल ही नहीं, आत्महत्या तक हो चुकी है। पूरा घटनाक्रम बहुत लंबा है और तभी से चल रहा है, जब पिछले साल वहां नबाम तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दौरान दल-बदल और मंत्रिमंडल से लोगों को निकाले जाने का सिलसिला शुरू हुआ। यह राजनीति बढ़ी, तो मुख्यमंत्री के भाई और विधानसभा अध्यक्ष ने 21 में से 14 बागी विधायकों को विधानसभा से बर्खास्त कर दिया। लेकिन विधानसभा उपाध्यक्ष ने इस फैसले को पलट दिया। सरकार ने विधानसभा भवन पर ही ताला लगा दिया, तो बागी विधायकों ने एक होटल में ‘विधानसभा सत्र’ आयोजित कर विधानसभा अध्यक्ष को बर्खास्त करने की घोषणा कर दी।
इतना ही नहीं, कलिखो पुल को नया मुख्यमंत्री भी घोषित कर दिया। इसके बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, जिसके खिलाफ कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। इस बीच कलिखो पुल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। उन्हें यह पद संभाले अभी पांच महीने भी नहीं हुए थे कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन से पहले वाली स्थिति बरकरार करने का आदेश दिया और नबाम तुकी को मुख्यमंत्री पद के लिए विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने को कहा। तुकी मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन उन्हें जल्द ही समझ में आ गया कि स्थितियां उनके खिलाफ हैं। उन्होंने बहुमत सिद्ध करने से चंद घंटे पहले ही इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस विधायक दल ने पेमा खांडू को नया मुख्यमंत्री बना दिया। इस बीच कलिखो पुल की आत्महत्या की खबर आ गई। पेमा खांडू भी ज्यादा दिन कांग्रेस में नहीं टिके और 42 विधायकों के साथ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हो गए। अब खांडू को उनकी पार्टी ने निकालकर मुख्यमंत्री पद के लिए नया नाम बढ़ा दिया है, और खांडू के पास बहुमत सिद्ध करने के लिए पर्याप्त विधायक तक नहीं हैं। अरुणाचल प्रदेश की राजनीति के इस खेल पर क्या कहा जाए? यह सच है कि पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे प्रदेशों में इस तरह की राजनीति कोई नई बात नहीं है।
यह भी अक्सर होता रहा है कि दिल्ली में जब भी सत्ता बदलती है, तो कई स्थानीय पार्टियां और बहुत से विधायक उसके साथ समीकरण बनाने लगते हैं। ऐसे मौकों पर बडे़ पैमाने पर तख्ता पलट दिखाई देते हैं। पिछले साल अरुणाचल में जब यह सब शुरू हुआ, तो यही आरोप लगा था कि पूरे खेल के पीछे भाजपा है, जिसके वहां चंद विधायक ही हैं। लेकिन बाद का घटनाक्रम बताता है कि स्थिति इतनी खराब है कि शायद भाजपा के संभालने से भी संभलने वाली नहीं है।
पहले यह कहा जाता था कि इन राज्यों की राजनीति अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है, परिपक्वता आएगी, तो ऐसी समस्याएं नहीं दिखेंगी। सच यह है कि पूर्वोत्तर की राजनीति उन्हीं सब बुराइयों को अपनाती जा रही है, जो देश की राजनीति में बहुत आम हैं। पूर्वोत्तर में छोटे-छोटे सूबे हैं, इसलिए वहां चंद विधायकों के बल पर सरकारों को बनाना-गिराना आसान होता है। वहां की राजनीति को भी उन्हीं राजनीतिक सुधारों की जरूरत है, जिनकी जरूरत बाकी देश को है। मसलन, राज्यपाल की भूमिका को ही लें। राज्यपाल का यह दायित्व है कि वह विवाद की स्थिति में सदन में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे, न कि राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करके किसी अन्य को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने का काम करे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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