भोपाल। दवाओं के नाम और इलाज के तरीके शायद जानबूझकर इस तरह से जटिल कर दिए गए हैं कि लोग इसका सामान्य ज्ञान हासिल करने में भी सफल नहीं हो सकते। शायद इसीलिए लोग डॉक्टर को भगवान मानकर अपनी जान उसके हाथ में सौंप देते हैं लेकिन जल्द से जल्द करोड़पति बनने के लालच में कमीशनबाज डॉक्टर मरीजों को थोक में एंटीबायोटिक दवाएं दे देते हैं। सब जानते हैं कि एंटीबायोटिक दवाओं में 90 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है। नतीजा यह कि अब इंसानी शरीर पर दवाओं का असर ही बंद हो गया है। जिस मरीजों को बहुत ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएं दी गईं उन्हे सामान्य बुखार होने पर भी प्रचलित दवाएं काम नहीं कर रहीं हैं।
हाल ही में कुछ ऐसे मामले सामने आने के बाद ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई), इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को पत्र लिखकर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग उचित तरीके से कहने के लिए कहा है। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) डॉ. जीएन सिंह ने इसे गंभीरता से लेते हुए कहा है शेड्यूल एच और शेड्यूल एच1 ड्रग की बिक्री पर सख्ती की जाएगी।
बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित
विशेषज्ञ डॉक्टरों के मुताबिक संक्रामक बीमारियां जैसे निमोनिया, डायरिया, पेट में सक्रमण से सबसे ज्यादा शिकार 0 से 5 साल तक के बच्चे होते हैं। लिहाजा, कम उम्र में उन्हें ज्यादा एंटीबायोटिक खाना पड़ती है। मप्र के नवजात शिशु गहन चिकित्सा ईकाइयों (एसएनसीयू) में भर्ती होने वाले 60 फीसदी नवजातों को एंटीबायोटिक दी जा रही है, जबकि उनमें करीब 35 फीसदी ही संक्रामक बीमारियों को शिकार होते हैं, जिन्हें एंटीबायोटिक की जरूरत होती है। यह जानकारी एसएनसीयू की ऑनलाइन रिपोर्ट से सामने आई है।
इसलिए बेअसर हो रहीं एंटीबायोटिक
एक साथ कई एंटीबायोटिक्स दी जा रहीं हैं।
तय डोज से ज्यादा एंटीबायोटिक दी जा रहीं हैं।
मरीज दवाएं खाना बीच में ही छोड़ देते हैं।
बिना एंटीबायोटिक दवाओं के ठीक होने वाली बीमारियों में भी एंटीबायोटिक दी जा रहीं हैं।
कम पॉवर की दवा की जरूरत में भी हाईडोज एंटीबायोटिक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
सिर्फ 90 फीसदी बैक्टीरिया मर रहे
कल्चर टेस्ट के दौरान ज्यादातर एंटीबायोटिक्स में सिर्फ 90 फीसदी बैक्टीरिया मर रहे हैं। बचे 10 फीसदी और ताकतवर हो जाते हैं। एमाक्सिसलीन, सिप्रोफ्लॉक्सासिन, स्ट्रेप्टोमाइसीन, सेफेक्जिम जैसी दवाओं में भी यह दिक्कत आ रही है।
डॉ. दीपक दुबे, पूर्व एचओडी, माइक्रोबायोलॉजी विभाग जीएमसी
निमोनिया का इलाज मुश्किल हो गया है
निमोनिया समेत बच्चे की कई बीमारियों में साधारण एंटीबायोटिक असर नहीं कर रही हैं। पहले सेप्ट्रान देते थे। इसके बाद एमाक्सिसलीन, लेकिन अब सेफ्ट्राइकजोन देना पड़ रहा है। झोलाछाप डॉक्टरों एंटीबायोटिक्स का बेजा उपयोग कर रहे हैं, इसलिए दिक्कत आ रही है।
डॉ. राकेश मिश्रा, शिशु रोग विशेषज्ञ
क्यों लिखीं जातीं हैं अनावश्यक एंटीबायोटिक्स दवाएं
दवा कंपनियों ने डॉक्टरों के भीतर मौजूद लालच को अपना टारगेट बना लिया है। एमआर नियमित रूप से डॉक्टरों के पास आते हैं। वो नई दवाओं की जानकारी नहीं देते बल्कि डॉक्टर्स को 'स्कीम' देकर जाते हैं। डॉक्टर्स दवा कंपनियों के टारगेट पर काम करते हैं। जो जितनी ज्यादा दवाएं बिकवाएगा उसे उतना ज्यादा कमीशन मिलेगा। बीमारियों के इलाज वाली दवाएं जरूरत से ज्यादा नहीं दे सकते। उससे मरीज पर तत्काल असर दिखता है इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं का ओवरडोज दे दिया जाता है। इससे तत्काल राहत महसूस होती है। लंबे समय तक कोई साइड इफैक्ट दिखाई नहीं देता और जिस बीमारी के इलाज के लिए मरीज आता है, वह बीमारी विकराल रूप धारण नहीं करती। अब यदि कोई नई बीमारी हो जाए तो डॉक्टर पर दोष नहीं लगता। सूत्र दावा करते हैं कि दवा कंपनियां एंटीबायोटिक दवाओं पर डॉक्टर को 90 प्रतिशत तक कमीशन देतीं हैं। सबसे कम कमीशन 30 प्रतिशत होता है।
सारा दोष झोलाछाप पर मढ़ने की तैयारी
मप्र स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का कहना है कि मप्र में करीब 15 हजार झोलाछाप डॉक्टर हैं। इन्हें एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिकूल असर की जानकारी नहीं होती है। लिहाजा सर्दी-जुकाम में भी हाई एंटीबायोटिक दिए जाते हैं। यहां बताना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सरकार के स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी है कि वो अपने प्रभाव क्षेत्र में एक भी झोलाछाप डॉक्टर को सक्रिय ना रहने दे। यदि वो इलाज कर रहा है तो यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है जिसके लिए संबंधित जिले का स्वास्थ्य अधिकारी दोषी है। बावजूद इसके झोलाछाप ना केवल इलाज कर रहे हैं बल्कि स्वास्थ्य विभाग अपने बयान में इसे स्वीकार भी कर रहा है।