कुमार विम्बाधर। उदयन...आपने हमने, उसे एक नाम दे दिया साइको किलर का। जिसने पांच साल पहले अपने माता-पिता को मारकर अपने ही घर के आंगन में गाड़ दिया। भोपाल में अपनी ही गर्लफ्रेंड को मारने के तकरीबन छह महीने बाद ये राज खुला। इस राज के खुलने से क्या उदयन का अंत हो गया?
थोड़ा चिंतन करिए, मनन करिए...आख़िर क्यों हुआ होगा ऐसा। उदयन की जो केस स्टडी सामने आई है, उसके मुताबिक रायपुर के जिस घर में वो अपने माता-पिता के साथ रहता था, उन्हें आसपास का कोई व्यक्ति नहीं जानता था। उसके माता-पिता भी एकाकी जीवन ही जी रहे थे। उदयन के घर न तो किसी का आना जाना था और न ही वो किसी से ज्यादा बात करता।
इसके विपरीत सोशल मीडिया यानी फेसबुक-ट्वीटर में वो उतना ही सक्रिय था। फेसबुक में उसने दो सौ से ज्यादा फेक एकाउंट बनाए थे। उसकी मानसिकता बताती है कि इंटरनेट पर उसने लाखों ऐसी साइट्स ब्राउज की होंगी, जिसकी व्याख्या यहां नहीं की जा सकती। यानी उदयन ने अपनी एक आभासी दुनिया बना ली थी, जिसका वो संचालक था। बटन उसके हाथ में था और वो इसका आदि हो चुका था। जीवन को अपने बटन से चलाना चाहता था। इस आभासी दुनिया के बाहर उसका अस्तित्व नहीं था और ये जानता था।
धीरे-धीरे इंटरनेट के जिस क्लिक से वो अपनी दुनिया पर राज करना चाहता था, उस इंटरनेट ने उस पर राज करना शुरू कर दिया। आप कल्पना कीजिए, एक दिन नेट बंद हो जाए, फेसबुक काम न करे, व्हाट्स अप चलना बंद हो...आप कैसे छटपटाने लगते हैं, तो जिस आदमी ने अपनी पूरी दुनिया ही इसके ईर्द गिर्द बनाई होगी, वो क्या करता होगा। जिस तरह की चीजें वो देखता रहा होगा, वही चीजें उसके दिमाग में घूमती होंगी और ये सिर्फ और सिर्फ नैराश्य पैदा करता है और इसी नैराश्य का नतीजा उदयन का उदय है।
आप अगर इसे नहीं समझे, तो नकारात्मकता का ये खतरा जाने कब कितना भयानक रूप ले ले। तो आप पूछेंगे कि आखिर उपाय क्या है? इंटरनेट के इस भयावह आक्रमण से कैसे बचें। इंटरनेट को अपना गुलाम कैसे बनाया रखा जाए, बजाय इसके कि हम इसके गुलाम बन जाएं। जवाब, हमारे धर्म शास्त्रों में हैं, हमारे संस्कारों में है और हमारी पुरातन जीवन शैली, जीवन पद्धति में है।
धर्म से आशय हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई से नहीं है। धर्म केवल वही है जो मानव और मानव के हृदय के बीच सेतु का काम करता है। भावनाओं का आदान प्रदान करता है। धर्म श्रद्धापूर्ण जीवन शैली से अपने मन की अनंत इच्छाओं पर कठोर रोक लगाता है। जब तक हम और आप अपने धर्म के साथ थे, हम एकाकी नहीं थे और आज भी जो धर्म और संस्कारों के साथ हैं, एकाकी नहीं हैं। वो सदुपयोग और दुरुपयोग में भेद कर सकते हैं।
आप विचार कीजिए। आज यदि मुरारी बापू की कथा चलती है तो कोई भी ऐरा-गैरा ये कहता हुआ निकल जाता है कि दुकान है...रमेश भाई ओझा भागवत कथा कहते हैं कि कुछ मतिभ्रम कहते हैं कि उनकी अलग दुकान है...गिरी बापू को कह देंगे, इनका अलग चल रहा है। ऐसा ही जब कहीं तकरीर चल रही होती है तो कह दिया जाता है। चर्चों में इंसानियत की बातें कहने वालों के खिलाफ कुछ न कुछ अनर्गल विलाप कर दिया जाता है।
आप मनन कीजिए, अपने आसपास की अशांति को दूर करने के लिए सनातन काल से हमारे यही संसाधन रहे हैं, बल्कि जिन्होंने इसे साध्य मान लिया, उनका जीवन मधुर हो गया। भजन-कीर्तन के कारण लोगों के बीच मेलजोल होता था, संवेदनाएं एक घर से दूसरे घर तैरती थी और यही पावनी गंगा थी। इंटरनेट युग ने इस गंगा को सुखा दिया है। आज घर के बाजू में कौन रहता है, पता नहीं होता। एक घर में श्मशान क्रिया होती रहती है तो दूसरे घर में पार्टी चल रही होती है। ऐसा संवेदनाहीन समाज भारत का नहीं हो सकता।
मुझे याद आता है बचपन। काफी छोटा था। घर के बाजू में कोई विशेष पकवान बन रहा हो, आस-पड़ोस में भले ही थोड़ी सी मात्रा में, पर आता था और जिस घर में आता था, वहां से वो कटोरियां खाली नहीं जाती थीं। वो प्यार और स्नेह से भरी हुई कोई न कोई चीज लेकर जाती थी। ये प्यार था, जो उस समाज को जोड़े रखता था। घर के बाहर शाम को घर की औरतों की चौपालें लगा करती थीं। एक दूसरे के सुख-दुख की बातें होती थी। किसके घर क्या आया, ये भी नजर रखी जाती थी।
अब इन सब चीजों को औचित्य नहीं रह गया है। सभी चीजें सबके पास हैं। मोहल्ले का एक फोन नंबर सभी के काम आता था और लोग दौड़े दौड़े बुलाने आते थे कि शर्मा जी, आपका फोन आया है। फोन पर ताला लगाकर रखा जाता था। रामायण देखने के लिए दूसरे के घरों में जाते थे। उनके यहां भी टीवी शटर में लगा होता था। भोग-विलास की चीजें जीवन शैली के उच्च प्रतिमान थे, लेकिन ये भोग-विलास की चीजें आज इतनी सामान्य हो गई हैं, कि हर व्यक्ति का इन पर अधिकार है।
यदि एक कार वाला एप्पल का स्मार्ट फोन रखता है, तो ठेले वाला माइक्रोमैक्स तो रखता ही है। टीवी, फ्रिज, कूलर, गाड़ी ये सारी चीजें बेहद सामान्य हो गईं। यानी रईसी के जो न्यूनतम प्रतिमान थे, वो आज सबके पास है। एक दूसरे की जरूरत नहीं है। जब सब चीजें सबके पास हैं, तो प्रेम खो गया और प्रेम खो गया तो अशांति आ गई।
इस अशांति से बचने के लिए अपने आसपास बातें कीजिए, मेलजोल बढ़ाइए। व्हाट्स अप, फेसबुक, ट्वीटर को संसाधन रहने दीजिए, साध्य मत बनाइए। अपने बच्चों को सिखाइए कि ये जीवन नहीं है। अपने बच्चों को जंगल लेकर गए हैं कभी? वहां के आदिवासियों से आप खुद मिले हैं कभी? आप देखिए, उसके पास इतने संसाधन नहीं, जितने आपके पास हैं, लेकिन उनका हैप्पीनेस इंडैक्स आपसे कहीं ज्यादा है।
इंडैक्स आफ इंकम से ज्यादा इंडैक्स आफ हैप्पीनेस की तरफ ध्यान दीजिए। हद तो आज ये हो गई है कि घरों में बच्चे माता-पिता से कई-कई दिन बात नहीं कर पाते और जब समय मिलता है साथ बैठने का तो ड्राइंग रूम में सीरियल देखकर बेडरूम में सोने चले जाते हैं। ये जीवन नहीं है साहब...मैडम...समझिए। अगर आज भी नहीं समझे, तो थोड़ी न थोड़ी मात्रा में उदयन आपके घरों में पल सकता है।