आइए मैं बताता हूं, जीत हार का असली कारण और 56 इंच का जादूई साइंस

Bhopal Samachar
अरुण अर्णव खरे। परिणाम आ गए .. अब हारा हुआ पक्ष हार का मंथन शुंरु करेगा । वह शुंरु करे इसके पहले ही हमने शुंरु कर दिया । आप कहेंगे कि यह काम आप क्यूँ करेंगे आपने तो चुनाव भी नहीं लड़ा था .. आप हारे नहीं हैं फिर हारे हुए लोगो के मन की बात आप कैसे समझेंगे । भाई मैं जीता भी नहीं हूँ लेकिन जिस तरह विजय के मनोभावों को समझने की सामर्थ्य है मुझमें उसी तरह हार के कारणों का विश्लेषण भी कर सकता हूँ। 

यह पहला चुनाव है जिसमे जीत और हार का एक ही कारण है:- छप्पन इंच । जीतने वाले जहाँ भी जीते छप्पन के कारण जीते और हारने वाले जहाँ भी हारे छप्पन के कारण हारे। महाभारत का परिणाम आने के बाद जिस तरह घटोत्कच के पुत्र ने पूरे महाभारत में सिर्फ़ चक्रधारी कृष्ण को लड़ते देखा था आज भी उसने चुनावी रणक्षेत्र में केवल और केवल छप्पन को ही लड़ते देखा। उसके आगे न अश्वत्थामा हाथी पर सवार बहिन जी टिक सकीं और न ही यादवी-गदा भांज रहे अखाडेबाज। 

छप्पन को विरोधियों ने मात्र पाँच और छह से मिलकर बना एक नंबर समझने की भूल की .. उन्हें इस नम्बर का निहितार्थ समझ में ही नहीं आया । आदिकाल से पाँच शक्ति का प्रतीक है .. शरीर की रचना पांच तत्वों से हुई है .. पाँच उँगलियाँ मिल कर मुट्ठी बन जाती हैं और मुट्ठी पंजे पर सदा ही भारी पड़ती आई है। छक्का ऊँचाई का प्रतीक है .. आसमानी सफ़र का .. वह चौके की तरह ज़मीन पर घिसटते हुए सीमारेखा के पार नहीं जाता। तो भाई पाँच और छह नम्बर से बना यह नम्बर कैसे नहीं सब पर भारी पड़ता... उसकी मुट्ठी की धमक से सबको चित्त होना ही था। 

साइकिल वाला लड़का बिना पेडल मारे हाईवे पर चलने का आदी हो चला था.. बाप गाँव की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर पेडल मार-मार कर साइकिल चलाता आया था -- ऊपर से लडके ने साइकिल का हेंडल भी एक ऐसे हाथ मे दे दिया जो अपनी कार की स्टेरिंग उखाड़ कर गाड़ी दौड़ाना चाह रहा था। अब साइकिल में एक्सीलेटर तो होता नहीं और उसने एक्लीलेटर के चक्कर मे ब्रेक दबा दिए तो उसकी क्या ग़लती। अब वह सबसे नीचे, साइकिल ऊपर और साइकिलवाला और ऊपर। 

हाथी के साथ तो और भी मज़ाक़ किया गया। उसे संप्रदायिकता की भांग का ज़बरदस्त डोज़ देकर सोचा गया कि यह मतवाला होकर सबको रोंद डालेगा पर उल्टा हो गया। अब बहिन जी का एक खैरख्वाह छप्पन इंच से पूँछ रहा है - भैया आपको जीतना था तो जीत जाते पर हमें यूँ रोंदना तो न था।

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