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कहने को पहले दिन के आयोजन को जनता दर्शन कहा गया। विपक्ष का यह भी आरोप है कि पहले दिन के लिए प्रशासन से अनुमति नहीं ली गई। संभव है, ऐसा शायद लगातार दूसरे दिन रोड शो करने की गुंजाइश रखने के लिए किया गया हो। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि पहले दिन बाद में राहुल-अखिलेश के रोड शो में भारी भीड़ उमड़ने से प्रधानमंत्री को दूसरे दिन भी शक्ति प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ा है। 11 मार्च सबके पत्ते खुल जायेंगे।
यह देखा जाना जरूरी है कि रोड शो का सियासी संदेश क्या है? असल में चुनाव प्रचार के दौरान जुलूस वगैरह निकालने की परंपरा तो पुरानी है। खासकर वामपंथी और पुराने समाजवादी, लोगों को प्रभावित करने के लिए ये तरीके अपनाते रहे हैं परन्तु वे रोड शो नहीं हुआ करते थे। उसमें नेता हुआ करते थे, पर इस कदर खुली गाड़ियों में जनता का अभिवादन स्वीकार करते नहीं दिखते थे। अमूमन उन जुलूसों में पैदल चलना अनिवार्य होता था। गाड़ियों का इस्तेमाल नहीं होता था। मौजूदा रोड शो की तरह का आयोजन पहली दफा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 2004 के आम चुनाव के पहले देश भर के कई शहरों और इलाकों में किया था और खासा असर पैदा किया था। इस बार भी उत्तर प्रदेश चुनाव के ऐलान के कुछ महीने पहले सोनिया गांधी ने ही बनारस में रोड शो किया था। जिसमें भारी भीड़ दिखी थी। असल में ये तरीके अपने व्यक्तित्व और लोकप्रियता से लोगों के प्रभावित करने के तो हैं, लेकिन लोगों को राजनैतिक मुद्दों पर जागरूक करने के नहीं हो सकते. इसलिए इससे राजनीति आगे नहीं जाती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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