
बात हार-जीत की नहीं है। इस बार भी उसने पंजाब में शानदार जीत हासिल की और गोवा तथा मणिपुर में अच्छी टक्कर दी। असल बात यह है कि वह विचार और रणनीति के स्तर पर हार रही है। वह बदलते वक्त के साथ अपना कोई खास मुहावरा नहीं विकसित कर पा रही, जिसके बारे में कहा जा सके कि यह कांग्रेस की अपनी पहचान है। आज पार्टी में जड़ता सी आ गई है। न तो कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव हो रहे हैं, न ही निचले स्तर पर ऐसा कुछ देखा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट तक को कई बार कहना पड़ा है कि पार्टी अपने सांगठनिक चुनाव कराए। पार्टी के पास केंद्रीय नेतृत्व तो है पर जमीनी लीडरशिप नहीं विकसित हो रही है।
एक समय हरेक राज्य में कांग्रेस के एक-दो कद्दावर नेता हुआ करते थे, जिनसे जनता अपना जुड़ाव महसूस करती थी। पर पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस का क्षेत्रीय नेतृत्व समाप्त हो गया। बहरहाल, कांग्रेस का यूं सिमटना देश के हित में नहीं है। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में बहुलतावादी सोच, संगठन और अनुभव वाली कांग्रेस जैसी एक राजनीतिक ताकत का होना जरूरी है। आजाद भारत के इतिहास में यह देश की जनता को आश्वस्त रखने का सबसे बड़ा जरिया रही है।
देश जब-जब संकट में पड़ा, उसने कांग्रेस का दामन थामा। आज भी देर नहीं हुई है। पार्टी उलझन से बाहर निकले। इलेक्शन मैनेजरों पर भरोसा करने की बजाय जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भरोसा करे। उसे लोगों से सीधा संवाद बनाने के तरीके खोजने होंगे। सर्जरी की बात ठीक है, पर यह सिर्फ बातों तक सीमित न रहे। कुछ भी करने के पहले ईमानदारी से उपर से नीचे तक यह मंथन हो कि जनता ने कांग्रेस को नापसंद क्यों किया है ? सरकारें खरीदने, हडपने और इवीएम मैनेज्मेंट जैसे बचकाने तर्क बंद हो।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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