आखिर क्यों होता है राजकोषीय घाटा

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। बीते 35 वर्ष के दौरान देश में राजकोषीय घाटे के दायरे की समीक्षा करना काफी जानकारीपरक साबित हो सकता है। यह वही अवधि है जब देश का सम्बन्ध सार्वजनिक ऋण क्षेत्र से क्या है पता लगने लगा था। ऐसा करने की एक अहम वजह यह है कि वृहद आर्थिक नीति के मसलों और उसके प्रदर्शन के मामले में इन घाटों की काफी अहमियत है। अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता अक्सर इस बात पर सहमत नजर आते हैं कि बड़ा और निरंतर बरकरार बजट घाटा बेहतर वृहद आर्थिक प्रदर्शन के लिए ठीक नहीं। ऐसे घाटों की वजह से निजी निवेश बाहर जाता है, मुद्रास्फीति का दबाव बनता है, भुगतान संतुलन कमजोर पड़ता है, वित्तीय क्षेत्र के सुधार करना मुश्किल होता जाता है और आने वाली पीढिय़ों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।

बीते 35 सालों में देश में केंद्र और राज्यों का मिलाजुला राजकोषीय घाटा औसतन सकल घरेलू उत्पाद का 7.7 फीसदी रहा है। केवल वर्ष 2007-08 के दौरान यह पांच फीसदी से नीचे आया था। दुनिया का कोई भी अन्य देश हमारे इस शिथिल आंकड़े के आसपास नहीं है। वर्ष 2015 में जब हमारा घाटा जीडीपी के 7.5 फीसदी था जब यूरो क्षेत्र का घाटा औसतन 2 फीसदी था। विकसित जी-20 देशों में यह 3 फीसदी और उभरते जी-20 देशों में यह 4.4 फीसदी था। यह आंकड़ा भी इसलिए इतना ज्यादा था क्योंकि तेल कीमतों में 16 फीसदी का तेज इजाफा हुआ। ऐसे में यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि इतनी ढीलीढाली राजकोषीय नीति के बावजूद हम बीते 35 सालों के दौरान औसतन 6 फीसदी की विकास दर हासिल करने में सफल रहे। लेकिन इससे पहले कि हम इस गलत नतीजे पर पहुंचें कि बढ़े हुए घाटे ने हमारी अर्थव्यवस्था की मदद की है, जरा राजकोषीय नीति के इतिहास पर एक करीबी नजर डाल लें। 

आंकड़ों के मुताबिक मिश्रित घाटा वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में जीडीपी के 6 फीसदी से बढ़कर दशक के मध्य तक 8 फीसदी और सन 1990-91 तक 8-9 फीसदी के स्तर पर आ गया। राजकोषीय असंतुलन बढ़ा। केंद्र सरकार को अक्सर सन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के लिए प्रमुख तौर पर जिम्मेदार माना जाता है। 

देश के राजकोषीय घाटों के रुझान की बात करें तो वे कमोबेश ऐसे हैं मानो कोई नशे का आदी व्यक्ति सुधार की नाकाम कोशिश कर रहा हो। वह बहुत लंबे समय तक सफल नहीं हो पा रहा हो
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!