राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल आये पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में एक बार फिर यह साफ हुआ कि महिलाएं मतदान के मामले में पुरुषों से कहीं ज्यादा सक्रिय और जागरूक हैं। इस बार के चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा रही। साथ ही यह भी उल्लेखनीय बात है की इन चुनावो में लगभग 9 लाख लोगों ने नोटा [किसी को मत नही] का उपयोग भी किया।
उत्तर प्रदेश के सामाजिक जीवन में महिलाओं की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम ही नजर आती थी , 2012 के विधानसभा चुनावों में ही मतदान के मामले में औरतें आगे निकल गई थीं। तब महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से 1.6 प्रतिशत ज्यादा था। लेकिन इस बार तो यह अंतर बढ़कर करीब 4 प्रतिशत पर पहुंच गया। इस चुनाव में मतदान करने वाले पुरुषों का प्रतिशत 59.43 था, जबकि महिलाओं के मामले में यह 63.26 दर्ज किया गया। बाकी राज्यों में भी महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से ज्यादा दर्ज की गई है।
पंजाब में वोट डालने वाली महिलाओं का हिस्सा 78.12 प्रतिशत था तो पुरुषों का ७६.७९ प्रतिशत। उत्तराखंड में 69.34 फीसदी औरतें पोलिंग बूथ तक पहुंचीं, जबकि वहां तक पहुंचने वाले पुरुषों का प्रतिशत 62.28 ही था। अशांत मणिपुर के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वोट डालने वाली महिलाओं प्रतिशत 45.23 था तो पुरुषों की 44 प्रतिशत। यह उपलब्धि मामूली नहीं है।
इसका बहुत कुछ श्रेय चुनाव आयोग को जाता है, जिसने शांतिपूर्ण मतदान की व्यवस्था सुनिश्चित की है। दूसरी बात यह है कि महिलाओं में हर स्तर पर आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति मजबूत हुई है। इस बड़े परिवर्तन को राजनीतिक पार्टियां भांप नहीं पा रही हैं, या फिर इसे देखकर भी इसकी अनदेखी कर रही हैं। तमाम पार्टियों के घोषणापत्रों में इस बार भी रस्मअदायगी की तरह महिलाओं के लिए वादे किए गए थे, लेकिन इनकी गंभीरता इसी से जाहिर होती है कि नेताओं के भाषणों में इनका जिक्र बहुत कम था। राजनीतिक भागीदारी की कौन कहे, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे सामाजिक विकास के मुद्दों पर भी किसी के पास कोई ठोस योजना नहीं है।
महिलाओं को टिकट देने में तो जैसे राजनीतिक दलों के हाथ-पांव ही फूल गए। असल सवाल मंशा का है। महिलाओं के लिए राजनीतिक पार्टियां अगर वास्तव में गंभीर हैं तो उन्हें कुछ ठोस प्रयास करके दिखाना होगा। जैसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए ५० प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया और फिर शराबबंदी को कुछ ज्यादा ही सख्ती से लागू किया। बाकी पार्टियां और सरकारें ऐसे जोखिम क्यों नहीं उठातीं। महिला आरक्षण विधेयक संसद में अटका पड़ा है। सभी दल अगर वाकई महिला हितों को लेकर गंभीर हैं तो इस बिल को पास कराने के लिए आपसी सहमति क्यों नहीं बनाते। यही हाल रहा तो महिलाओं में तमाम दलों के प्रति अविश्वास पैदा हो सकता है, और अगर उन्होंने एकजुट होकर वोट देना शुरू किया तो किसी को भी सबक सिखा सकती हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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