राकेश दुबे@प्रतिदिन। दुनिया में युवा आबादी का सबसे बड़ा घनत्व भारत में है, 36 करोड़ तो 18 से 24 आयु समूह के हैं और यह माना जाता है कि इस आबादी को अगर ठीक तरह से काम पर लगाया जाए, तो जल्द ही भारत एक विकसित देश बनने की ओर बढ़ सकता है। यह युवा आबादी कई तरह से देश को बदल रही है। हर बार जब देश में कहीं भी चुनाव होते हैं, तो पता चलता है कि एक बड़ी संख्या उन मतदाताओं की है, जो पहली बार वोट डालने जा रहे हैं। ये ऐसे मतदाता होते हैं, जो अतीत के राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हैं और अपनी नई सोच के हिसाब से मतदान करते हैं।
इस बार उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के जिस तरह से अप्रत्याशित नतीजे आए, उसका बहुत कुछ श्रेय इस युवा वर्ग को ही दिया जा रहा है। यह माना जा रहा है कि इस नए वर्ग के मतदाताओं ने जाति, वर्ग और धर्म के विभाजनों से अलग होकर अपने भविष्य की सोच के हिसाब से मतदान किया। लेकिन इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू है, इन चुनावों के बाद प्रदेशों में बनी सरकारें, जिनमें युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व बहुत कम या लगभग नगण्य दिखता है।
पंजाब के पिछले मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की उम्र अगर 89 साल थी, तो उनकी जगह लेने के लिए कांग्रेस ने जिन्हें चुना, वह अमरिंदर सिंह उतने वयोवृद्ध भले न हों, लेकिन 74 साल के तो हैं ही। लेकिन गोवा के मुख्यमंत्री पद पर दोबारा बिठाए गए मनोहर पर्रिकर इसके मुकाबले 61 वर्ष के ही हैं। यानी वह भी उस उम्र के हैं, जब एक सरकारी कर्मचारी रिटायर होकर वानप्रस्थ का जीवन बिताने लगता है। सिर्फ मणिपुर के मुख्यमंत्री बनाए गए एन बीरेन सिंह की उम्र इतनी है कि उन्हें अभी वृद्ध नहीं माना जा सकता, लेकिन 55 वर्षीय एन बीरेन सिंह युवा की परिभाषा में भी नहीं आते। उत्तराखंड के त्रिवेंन्द्र रावत भी 55 पार हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी योग्य की तलाश अभी जारी है, उम्मीद यही है कि यह खोज किसी साठ या सत्तर पार नेता पर पहुंचकर ही समाप्त होगी। जब नेतृत्व देने की बात आती है, तो आखिर हम अपनी युवा आबादी को इस तरह नजरअंदाज क्यों कर देते हैं?
सवाल यह है कि राजनीति में नया नेतृत्व कहां से आगे आएगा, इसकी हमारे राजनीतिक दलों के पास कोई व्यवस्था नहीं है। किसी भी दल ने वह नर्सरी ही नहीं बनाई, जहां भावी नेताओं को अंकुरित किया जाए। पुत्र मोह और परिवारवाद की बीमारी भी है। देश में यूँ तो परम्परागत व्यवसाय समाप्त प्राय: है तो राजनीति को भी इससे मुक्त कीजिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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