राकेश दुबे@प्रतिदिन। व्यापार, निवेश और राजनीतिक अर्थशास्त्र पर केंद्रित ब्रिटेन की प्रतिष्ठित पत्रिका द इकनॉमिस्ट का कहना है कि भारत के बैंकों और व्यापारिक नेताओं का मिजाज इस सरकारी दावे की तस्दीक करते नहीं लगते कि यह संसार की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था है। पिछले पांच वर्षों में बैंकों से उठाए गए हाउसिंग, पर्सनल और इंडस्ट्रियल का ग्राफ दिखाते हुए पत्रिका ने पूछा है कि अगर ये ग्राफ 7 प्रतिशत से ज्यादा की जीडीपी ग्रोथ दिखा रहे हैं, तो फिर घनघोर मंदी में इनकी शक्ल कैसी नजर आएगी। भारत के ग्रोथ डेटा पर सवाल तभी से उठाए जाते रहे हैं, जब मौजूदा सरकार ने रातोंरात जीडीपी नापने का आधार बदल दिया था। लेकिन ब्लूमबर्ग और द इकनामिस्ट जैसे मंचों पर भारतीय आंकड़ों को लेकर इतने मजाकिया लहजे में सवाल खड़े होना चिंता का विषय होना चाहिए। द इकनॉमिस्ट ने भारत की बैंकिंग, बड़े औद्योगिक घरानों और सरकार के आपसी रिश्तों पर भी तीखी टिप्पणी की है।
देश की 70 प्रतिशत बैंकिंग इंडस्ट्री पर सरकारी बैंकों का कब्जा है, जिन्होंने सरकार के इशारे पर गिनती के दस बड़े औद्योगिक घरानों को 7 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के रद्दी कर्ज बांट रखे हैं। इस कर्ज का बड़ा हिस्सा इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगा है और कुछ टेलिकाम जैसे धंधों में। 2010 के आसपास, जब भारत मंदी के जाल में फंसते-फंसते रह गया था, तभी से ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि देश तेजी से तरक्की करने वाला है। इस झांसे में आम जनता तो क्या औद्योगिक घराने भी आ गए और बैंकों से उठाया गया उनका कर्ज फंसता चला गया। कोई भी समझदार बैंकर इस सिलसिले को बीच में ही रोक देता और अपना ध्यान फंसे प्रोजेक्टों को पूरा करवा कर कर्जे की वसूली पर केंद्रित करता। लेकिन भारत में हर कोई अपने आंकड़े दुरुस्त दिखाने के चक्कर में है।
सरकारें सकारात्मक माहौल बनाए रखना चाहती हैं, बैंकों की कोशिश रहती है कि अंतिम समय तक उनका कर्जा फंसा हुआ न दिखे, और औद्योगिक घराने फंसा प्रोजेक्ट पूरा कर लेने के नाम पर और-और कर्जा उठाते चले जाते हैं। यह सिलसिला अब चरम पर पहुंच चुका है। खबर है कि सरकार ने बैंकों की हालत दुरुस्त करने के लिए जरूरी बताई गई 1 लाख 80 हजार करोड़ रुपये की रकम देने से साफ मना कर दिया है और उन्हें अपनी बीमारी का इलाज खुद ढूंढने को कहा है। इस नुस्खे की चुभन आम आदमी को हर बैंकिंग सेवा के लिए फीस अदा करने की शक्ल में महसूस हो रही है, लेकिन यह तो एक बड़ी बीमारी का छोटा हिस्सा भर है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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