
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का विशेष जिक्र होना जरूरी है, जहां तीन दिनों तक प्रधानमंत्री रोड शो चला। यह आचार संहिता के परे भी है। ऐसे परिदृश्य बाहरी तौर पर तो लोकतंत्र की ताकत, आदर्श और उसके मजबूती का बखान तो करता है लेकिन हकीकत में यह सुधार से कोसों दूर है। इस बार चुनाव को लेकर आयोग ने कई तरह के निर्देश तमाम राजनीतिक दलों के लिए जारी किए थे। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने धर्म और जाति के आधार पर या उसकी आड़ में वोट मांगने को अवैध माना था और दलों को सख्त ताकीद की गई थी कि ऐसा करने पर दलों और नेताओं पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। श्मशान-कब्रिस्तान से लेकर ईद-होली पर बिजली सप्लाई पर पक्षपाती बयान धड़ल्ले से दिए गए। क्या यह आदर्श आचार संहिता की खुलकर धज्जियां उड़ना नहीं है।
खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश में खुद प्रधानमंत्री ने वह सब कहा, जिसे आमतौर पर मर्यादा से उलट माना जाता है। तब तो चुनाव आयोग के चोटिल होने से आहत मुख्य चुनाव आयुक्त का सुधार की बात कहना यही संदेश देने की कोशिश है कि 1952 से अब तक बहुत कुछ बदलने के बावजूद काफी कुछ शेष है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था भी तभी कारगर है, जब चुनाव आदर्श तरीके से संपन्न हो। जैदी के चुनाव सुधार की वकालत के संकेत भी यही हैं कि आयोग को ज्यादा ताकतवर बनाया जाए. चूंकि, यह काम संसद को करना है और सभी दलों की रजामंदी भी जरूरी है। जिस पर सारे दल सुधार के विषय को अरुचिकर मानते हैं। तो क्या यह मानकर चला जाए कि सिर्फ नोटिस देने या माफी मंगवाने से इतर आयोग को इससे ज्यादा की अधिकार की दरकार है। यही समय की मांग भी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए