
वाहनों के इंजन के लिए भारत स्टेज एमिशन स्टैंडर्ड को हमने इस सदी की शुरुआत में अपनाया था, जब ऑटोमोबाइल के मानक कडे़ किए गए थे। इसे यूरोप के लिए बने यूरो एमिशन स्टैंडर्ड के आधार पर तैयार किया गया था, जो तकरीबन पूरी दुनिया का ही मानक है। इसके हिसाब से जो यूरो-2 है, वह बीएस-2 है, जो यूरो-3 है, वह बीएस-3 आदि। अगर हम यूरोप और भारत के मानक की तुलना करें, तो यह भी पता चलता है कि हम विकसित दुनिया से प्रदूषण के प्रति गंभीरता दिखाने के मामले में कितने पीछे हैं? जिस समय हम भारत में बीएस-4 लागू करने के लिए जूझ रहे हैं, उस वक्त पूरी दुनिया में यूरो-6 की विदाई की तैयारियां चल रही हैं। और यह सिर्फ पर्यावरण के प्रति गंभीरता का मामला ही नहीं है, इसमें कई तरह के व्यावसायिक हित भी जुड़े हैं। मोटे तौर पर पर्यावरण मानक का एक स्तर बाजार में चार साल तक चलता है और इस लिहाज से हमारा देश अभी तकरीबन आठ साल पीछे है। पश्चिमी ऑटोमोबाइल कंपनियां इसका फायदा उठाकर अपनी पुरानी तकनीक कुछ साल के लिए भारत में खपा देती हैं।
यह जरूर है कि सरकार ने अब कुछ हद तक इसे बदलने की ठान ली है। इसीलिए तय किया गया है कि भारत अब बीएस-4 के बाद बीएस-5 को नहीं अपनाएगा, बल्कि इसकी बजाय सन 2020 तक सीधा कूदकर बीएस-6 पर पहुंच जाएगा। अगर ऐसा हुआ, तो यह एक बड़ी छलांग होगी, हालांकि फिर भी हम पश्चिमी देशों से पीछे ही रहेंगे, क्योंकि उस समय तक ये देश यूरो-7 पर पहुंच चुके होंगे। इसके बावजूद यह एक बड़ा संकल्प है, जिसे हासिल करना आसान नहीं होगा। देश के कई ऑटोमोबाइल विशेषज्ञ इसे लेकर पहले ही कई तरह की बाधाओं की बात कर रहे हैं। इस रास्ते की आगे की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हम कितनी जल्दी बीएस-3 के वाहनों से मुक्ति पाते हैं और बीएस-4 के वाहनों को पूरी तरह से अपनाते हैं। पर्यावरण को बेहतर बनाने की राह आसान नहीं है, इसमें कई बाधाएं आएंगी और इसके लिए कड़े फैसले करने ही होंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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