लखनऊ। यूपी में भाजपा की प्रचंड जीत के बाद जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के चर्चे हैं, वहीं दूसरी पार्टियों में हार को लेकर मायूसी का माहौल है। इन चुनावों में जहां सपा-कांग्रेस गठबंधन को जनता ने नकार दिया, वहीं बसपा का हाल सबसे बुरा रहा। यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती की बसपा 2012 में मिलीं 80 सीटों से सिमटकर 19 सीटों पर आ गई। मायावती ने चुनाव पूर्व दावा किया था कि वो 200 से ज्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाएंगी, लेकिन चुनाव नतीजों को देखकर वो हैरान और परेशान हैं। आइए जानते हैं वो कारण, जिनकी वजह से मायावती को हार का मुंह देखना पड़ा।
जनता से दूरी पड़ी भारी
इसे मायावती की राजनीति का हिस्सा कहें या कुछ और कि वो जनता से सीधे संवाद नहीं करतीं। मायावती केवल पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और विधायकों-सांसदों से लखनऊ या दिल्ली में अपने आवास पर ही मुलाकात करती हैं। जनता के बीच वे केवल चुनाव के दौरान रैलियों में ही जाती हैं। यूपी में सपा सरकार के दौरान घटित बड़ी घटनाओं पर भी मायावती ने मात्र प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इतिश्री कर ली। सरकार के खिलाफ कभी किसी धरने या प्रदर्शन में वे शामिल नहीं हुईं। जनता से यह दूरी मायावती को भारी पड़ी।
सोशल मीडिया की अनदेखी
2014 के लोकसभा चुनाव से ही देश के सभी दलों ने सोशल मीडिया की ताकत को पहचान लिया था। ज्यादातर सियासी दलों और राजनेताओं के पास अपनी सोशल मीडिया टीम है, जिसके जरिए वो जनता से जुड़े रहते हैं। इसके अलावा कई बार लोग अपनी बात भी सोशल मीडिया के जरिए नेताओं तक पहुंचाते रहते हैं। ऐसे में यह अपने आप में बहुत बड़ा ताज्जुब है कि मायावती या बसपा का कोई ऑफिशियल ट्विटर या फेसबुक अकाउंट नहीं है। इंटरनेट के दौर में सोशल मीडिया की इस तरह अनदेखी बसपा और मायावती के लिए घातक साबित हुई।
पार्टी के अंदर लोकतंत्र का अभाव
यह कहा जाता है और कई बार देखने में भी आया है कि बसपा के अंदर मायावती के अलावा किसी और नेता को मीडिया के सामने बोलने या निर्णय लेने की इजाजत नहीं है। यहां तक कि जिला स्तर पर सरकार के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शन भी मायावती के निर्देश पर ही तय होते हैं। पार्टी का कोई नेता मायावती की सहमति के बिना किसी तरह का कोई बयान नहीं दे सकता। मायावती यह समझने में नाकाम रहीं कि जनता केवल नेता की शक्ल देखकर ही वोट नहीं देती, वह जिस पार्टी को वोट दे रही है उसमें एक स्वस्थ लोकतंत्र की इच्छा भी रखती है।
किसी तरह के प्रकोष्ठ का नामोनिशान नहीं
देश की लगभग सभी पार्टियों में यूथ विंग, छात्र संगठन और महिला मोर्चा जैसे प्रकोष्ठ हैं, जिनके जरिए राजनीतिक दल युवाओं, छात्र-छात्राओं और महिलाओं को पद सौंपकर पार्टी से जोड़े रखते हैं। मायावती ने ऐसा कोई प्रकोष्ठ बनाने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि अलग-अलग जातियों के लिए बसपा में भाईचारा कमेटियां बनी हुई हैं लेकिन वो केवल चुनाव के दौरान ही सक्रिय होती हैं। चुनाव के बाद युवाओं और महिलाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए किसी तरह की कोई कोशिश नहीं होती।
एक जाति विशेष की राजनीति तक ही सीमित
मायावती ने अपनी पहचान दलितों की नेता के तौर पर रखी है। चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती यह भी समझने में नाकाम रहीं कि एक ही वर्ग की राजनीति करके सियासत में ज्यादा दिनों तक बना नहीं रहा जा सकता। हालांकि उन्होंने टिकट बंटवारे में जरूर सोशल इंजीनियरिंग दिखाई लेकिन उनकी सरकार के दौरान बाकी वर्गों के लिए कोई विशेष उल्लेखनीय काम नहीं हुआ। चुनावों के दौरान बाकी वर्ग के लोगों ने उन्हें एक दलित नेता को तौर पर ही देखा, जो उन्हें भारी पड़ा।