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यह यह भी उल्लेक्नीय है कि जोरशोर से लॉन्च किए गए मेक इन इंडिया अभियान अभी तक पर्याप्त निवेश आकर्षित नहीं कर पाया है। कुछ बड़े निवेश प्रस्ताव जरूर आए लेकिन ये अभी कागजों से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इऩके जमीन पर उतरने में 4-5 साल और लगेंगे। जैसे, ताइवानी कंपनी फॉक्सकॉन अगले 5 सालों मे 5 अरब डॉलर का निवेश करेगी। रेलवे को बिहार में दो इंजन कारखाने लगाने के लिए 10 हजार करोड़ रुपये का विदेशी निवेश जुटाने में कामयाबी मिली है, लेकिन ऐसी घोषणाओं का कोई मतलब तभी है, जब ये जमीन पर उतर आएं।
मेक इन इंडिया के गति न पकड़ने का एक कारण यह भी है कि देश में जैसा कारोबारी माहौल बनना चाहिए, वैसा बन नहीं पाया है। यह तभी संभव है जब बाजार में नई मांग पैदा हो और निर्यात भी बढ़ता रहे। व्यवहार में ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। सरकार ने हर हाथ को काम देने का वादा जरूर किया था, पर अभी तो पुराने रोजगार बचाना ही मुश्किल हो रहा है। अभी तो हालत यह है कि ज्यादातर मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां चीन से मंगाए पुर्जों की असेबलिंग से ज्यादा कुछ नहीं करतीं और सारी ताकत ब्रांडिंग में ही झोंक देती हैं। मेक इन इंडिया का कोई मतलब तभी है जब हमारी कंपनियां पूरी तरह अपने पांव पर खड़ी हों और उनके बनाए सामान इज्जत से पूरी दुनिया में बिकें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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