भोपाल। मध्यप्रदेश के स्कूल शिक्षा विभाग में जमे आला अधिकारियों को अपना मजाक उड़वाने में शायद आनंद आता है। 2015 में इसी स्कूल शिक्षा विभाग के अफसरों ने 'स्कूलों में छुट्टी करने का अधिकार' को लेकर हायतौबा मचाई थी। उन्हे खास आपत्ति थी कि यह अधिकार जिलों में कलेक्टरों के पास है। अंतत: विभाग ने कलेक्टरों से यह अधिकार छीन लिया गया था। अब 2017 में उन्हे वापस लौटा दिया गया है। (मियां बस एक बात समझ नहीं आई, लौटाना ही था तो छीना क्यों , छीना था तो लौटाया क्यों। इस मुए विभाग में अफसर हैं या प्राइमरी के स्टूडेंट, जो काली पट्टी पर एक ही इबारत लिखते और मिटाते रहते हैं। )
कलेक्टरों से छीना जा चुका 'स्कूलों में छुट्टी करने का अधिकार' उन्हे वापस लौटा दिया गया है। स्कूल शिक्षा विभाग की अवर सचिव कलावती उइके ने एक आदेश जारी करते हुए स्कूलों का समय कम करने या बंद करने जैसे अधिकार कलेक्टरों को दे दिए हैं। अब कलेक्टर स्वविवेक से इस संबंध में निर्णय ले सकेंगे। सवाल यह है कि आला पदों पर बैठे नीतियां बनाने वाले अफसर बच्चों जैसी हरकतें कैसे कर सकते हैं। या तो वो 2015 में गलत थे या फिर वो 2017 में गलत हैं। 2015 में की गई गलती को सुधारने में शिक्षा विभाग ने 2 साल लगा दिए।
क्या दलील दी थी 2015 में
जनवरी 2015 में स्कूल शिक्षा विभाग ने सभी कमिश्नरों और कलेक्टर को निर्देश जारी कर कहा था कि यदि विद्यालयों को बंद करने की आवश्यकता महसूस की जाती है तो संबंधित कलेक्टर स्कूल शिक्षा विभाग से अनुमति लेने के बाद ही ऐसा निर्णय कर सकेगा। समय-समय पर शासकीय विद्यालयों को बंद करने का निर्णय जिला प्रशासन द्वारा ले लिया जाता है। विद्यालय बंद रहने से शिक्षण कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदेश के लगभग 88 प्रतिशत शासकीय विद्यालयों का संचालन एक पारी में पूर्वान्ह 10 बजे से सायं 5 बजे के बीच किया जाता है। विद्यालयों की संख्या एवं उनके संचालन के समय को देखते हुए केवल मौसम या अन्य आधार पर उन्हें बंद करने का निर्णय लिया जाना विद्यार्थियों के शैक्षणिक हित में नहीं है।