राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक सर्वे में सामने आया है किअधिकांश प्रदेशों की राज्य सरकारों की उच्च शिक्षा में कोई खास रुचि नहीं है, और वे इसका भार नहीं उठाना चाह रहीं| इसी कारण अनेक प्रदेशों में यूजीसी से स्वीकृत पदों को राज्य सरकार की सहमति नहीं मिली और वे ‘लैप्स’ हो गये। सेवानिवृत्त होने वाले अध्यापकों के पद भरे नहींजा रहे हैं। उनकी जगह अंशकालिक अध्यापकों, शोध-छात्रों या अतिथि अध्यापकों से काम चलाया जा रहा है। यह देश में उच्च शिक्षा का चित्र है।
बढती जनसंख्या और उसमें युवा वर्ग के अनुपात को देखते हुए अगले दस-बारह साल में उच्च शिक्षा पाने वाले युवाओं की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होगी जिनके लिए हमारे पास आवश्यक शैक्षणिक व्यवस्था और संसाधनों की स्पष्ट और सार्थक योजना नहीं है। देश के सामने खड़े बड़े प्रश्नों में यह भी है कि हम अपने देश-काल की समस्याओं के प्रति कितने सतर्क और संवेदनशील हैं। उच्च शिक्षा की स्वीकृत और प्रचलित शिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति सर्जनात्मकता और आलोचनात्मक दृष्टि के विरोध में खड़ी दिखती है। प्रवेश परीक्षा से लेकर अंतिम परीक्षा तक कामयाबी के लिए सोच-विचार कम और रटना अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। पूरी की पूरी शिक्षा पुनरुत्पादन या दुहराव के पाए पर टिकी हुई है। परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों की संख्या सीमित होती जा रही है, और प्रतिरोध के चलते पाठ्यक्रम में कोई खास बदलाव नहीं लाया जाता है।
भारत में अध्यापन का गौरवशाली अतीत रहा है। उसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है। माना जाता है कि वह प्रकाश द्वारा समाज का मार्ग आलोकित करेगा। अर्थात गुरु या अध्यापक बनना सबके बस की बात नहीं है। अध्यापकी भी अब दूसरे व्यवसायों की ही तरह हो चली है। शोध-प्रकाशन पर अतिरिक्त बल देने का खमियाजा यह है कि गली-गली से शोध की पत्रिकाएं छप रही हैं। जिनका कोई मूल्य नहीं है कुल मिला कर अध्यापन को लेकर जो नैतिक भरोसा था, वह अब टूट-बिखर रहा है। स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास हो रहे हैं पर चतुर सुजान लोगों द्वारा उनकी काट भी खोज ली जाती है।
शिक्षा या कोई भी उपक्रम आंतरिक शक्ति और अपने संदर्भ की सतत उपेक्षा करते हुए अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। सवाल यह है कि प्रासंगिकता और दायित्वबोध को अपने दायरे में लाए बिना उच्च शिक्षा अपनी वह जगह बना सकेगी जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है?
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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