अरुण अर्णव खरे। जगवा की यही अंतिम इच्छा थी कि उसके मरणोपरांत उत्तम नगर झुग्गीबस्ती के कुछ बुज़ुर्ग व्यक्तियों एवं पार्षद की उपस्थिति में उसकी झुग्गी का पंचवामा तैयार किया जाए और टिन के बक्शे में रखे एक काग़ज़, जिसे वसीयत कह सकते हैं, के अनुसार कार्यवाही की जावे। टिन का बक्शा खुलते ही सबकी आँखें फटी रह गई। उसमे से नोटों के बण्डल निकलते जा रहे थे। जब गिनती की गई तो तीन लाख पैंसठ हज़ार की राशि निकली। अक्सर फांकाकँशी करने वाले और पैसे-पैसे के लिए मोंहताज जगवा के पास इतनी संपत्ति .. उसके आगे पीछे भी कोई नहीं था जिसके लिए अपना पेट काटकर उसने इतना पैसा जमा कर रखा था। जब वह लोगों से कहता कि उसके मरने के बाद उसकी संपत्ति का पंचनामा पार्षद की मौजूदगी में ही बनाया जाए तो लोग पींठ पीछे हंसते थे। खाने को दाने नहीं और सेठों की तरह संपत्ति की चिंता।
जगवा कौन था अधिकतर लोग उसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते थे। 20-22 साल पहले जब उत्तम नगर झुग्गी बस्ती बसाई गई थी तबसे वह यहीं रह रहा था। उसने शादी भी नहीं की थी। एक सरकारी स्कूल के सामने खोमचे का ठेला लगाकर अपना खर्च चलाता था। बस्ती के लोगों से उसकी ज्यादा बोलचाल भी नहीं थी। बल्देव चाचा से वह आते जाते राम-राम कर लिया करता था और कभी-कभार जमुना पहलवान के साथ गप्प सड़ाका करते देखा जाता था। बारह-तेरह साल हुए जब जगवा काफी बीमार हुआ था तब जमना ने ही उसकी देखभाल की थी। इसके बाद तो उसके लिए खोमचे का ठेला लगाना भी मुश्किल होने लगा था .. फिर भी वह हफ्ते मे दो-तीन दिन किसी तरह ठेला लगाता। पर इस बीच एक अजीब सी ख़बर मिली - बम्बई से कोई संस्था उसको हर माह अढ़ाई हजार रुपए भेजने लगी थी। गाँव वालों के लिए ये कौतुहल वाली बात थी कि बम्बई से कौन उसे ये पैसा भेज रहा है -- क्या सम्बंध है उसका जगवा से। लोग तरह-तरह की बातें करते - गाँव वालों को जगवा बड़ा रहस्यमय लगने लगा था। एक दिन पोस्टमैन को घेरकर बल्देव चाचा ने इस बारे में पूँछना चाहा पर उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं मिल सकी सिवा इसके कि कोई सुनील भाई हैं जो जगवा को पैसे भिजवा रहे हैं।
तीन साल पहले जमना की अचानक मृत्यु होने के उपरांत से उसका पांच साल का पोता ईसुरी जगवा के घर पर ही ज्यादा समय बिताने लगा था। जगवा के साथ रहने से शारीरिक रूप से उसमें काफ़ी परिवर्तन आ गया था। उसका शरीर गठा हुआ और सजीला लगने लगा था। उसने ही बल्देव चाचा को सबसे पहले जगवा के न रहने की सूचना दी थी।
बक्शे में पैसों के अतिरिक्त एक बड़ा लिफ़ाफ़ा भी मिला जिसमें पुराने अख़बारों की कतरने और कुछ फोटो थे। एक अन्य लिफाफे मे दो पत्र थे। पैसों की तरह ही अख़बारों की कतरने देखकर भी लोग अचंभित थे। ईसुरी ने एक फ़ोटो पर उँगली रख कर बताया - "ई देखब .. दद्दू इंडोनेसिया के सकरनो के साख हाथ मिलावत हैं .. और ई देखो .. दद्दू को चाँदी का तमगा दिए रहे वो "
लोगों को ईसुरी की बात समझ में ही नहीं आई - क्या बताना चाह रहा है वह। बस्ती से रिटायर्ड नरेंद्र मास्साब को बुलाया गया - उन्होंने अख़बार की कतरने और चाँदी के तमग़े को देखा तो रो पड़े - "हमारे बीच से एक हीरो चला गया .. हम उसे पहिचान ही न सके .. वह तो देश का सपूत था .. गुमनाम मर गया .. उसने एशिया मे पहलवानी में चाँदी का पदक जीता था .. इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो ने उसे सम्मानित किया था ..।"
सभी लोग नरेंद्र मास्साब की ओर डबडबाई आंखो से देख रहे थे। उन्होंने लिफाफे मे रखे एक पत्र को पढ़ना शुरु किया जो जगवा ने सोनीपत के रामसुभग अखाड़े को लिखा था - "भाई जी परनाम .. मैं हमारे पोते जैसे ईसुरी को आपके पास भेज रहा हूँ - बड़ा होनहार बच्चा है और बहुत मेहनती है .. मुझे उसमें विश्व विजेता दिखाई पड़ता है .. आप उसे अपनी सरन मे लेकर उसके हुनर को चमका दीजिए .. हमारे ऊपर इतनी किरपा कीजिए । जगवा "
सबने ईसुरी की ओर देखा जो अब तक रोए जा रहा था। मास्साब ने जल्दी से दूसरा पत्र खोला और पढ़ने लगे जो बम्बई के सुनील भाई को लिखा था - "आपने मुझ पर जो किरपा की उसके धन्यवाद के लिए हमरे पास सब्द ही नहीं हैं .. हम अभारी हैं आपके कि आप जैसे देश के इतने बड़े खिलाड़ी को हम जैसे छोटे लोगो का इतना ध्यान रहा .. पर सुनील भैया जी .. हम आपके भेजे रुपए नहीं ले सकत .. हमारा ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं दे रहा .. हम जैसे अनपढ़ और ज़ाहिल को देश की सेवा करने का मौक़ा मिला यही हमारे लिए बहुत सौभाग्य की बात है .. हम इस सेवा का मूल्य नहीं ले सकत .. आपके पैसे हमरे पास सुरक्षित हैं .. जैसे ही हमें कोई सही आदमी मिलेगा हम वो पैसा आप तक वापस भेज देंगे - आपका जगवा"
पत्र समाप्त होते-होते हर आंख में पानी छलछला आया था । सबके हाथ जगवा को सलामी देने के लिए उठ चुके थे ।
अरुण अर्णव खरे,
साउथ विण्डसर, अमेरिका