
भारत में जीएसटी व्यवस्था अपनाए जाने की सोच सबसे पहले अटल बिहारी वाजयेपी की एनडीए सरकार के समय स्वीकारी गई थी। इसके बाद इसका खाका तैयार करने के लिए पश्चिम बंगाल के तत्कालीन वित्त मंत्री और माकपा नेता असीम दासगुप्ता की अगुवाई में एक समिति बनी थी। जब तक इस समिति की रिपोर्ट आती केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बन चुकी थी, जिसने राज्य सरकारों से लंबे विचार-विमर्श और सहमतियों-असहमतियों के दौर के बाद एक खाका तैयार किया था। 2014 के बाद से मौजूदा एनडीए सरकार इसे अमली जामा पहनाने में जुटी है। इसके लिए जो 18 वर्ष से ज्यादा का समय लगा, वह जरूरत से ज्यादा लंबा लग सकता है, पर इसके लिए हमने जो राजनीतिक आम सहमति बनाई है, वह किसी उपलब्धि से कम नहीं है। उपलब्धि यह भी बताती है कि तमाम सियासी खींचतान के बीच देश ने समझदारी की दिशा में बढ़ने की अपनी प्रवृत्ति बनाए रखी है।
उम्मीद यही है कि इससे कर वंचना शायद कम होगी, राजस्व बढ़ेगा और जन-कल्याण कार्यक्रमों के लिए ज्यादा धन उपलब्ध होगा। वैसे कर वंचना पूरी तरह कर-व्यवस्था से जुड़ी चीज नहीं होती। कर-व्यवस्था अगर तर्कसंगत हो, उसमें विरोधाभास कम हों और प्रावधान ऐसे हों कि टैक्स चुराना घाटे का सौदा लगे, तो कर वंचना को कम किया जा सकता है। फिर कर वंचना को रोकना राजनीतिक प्रतिबद्धता का मामला भी है, प्रशासनिक कुशलता का भी। यह काले धन से भी जुड़ा है। काला धन अर्थव्यवस्था में मौजूद है, तो वह नियमों को धता बताने का रास्ता निकालेगा ही। जीएसटी अपने आप में किसी ईमानदारी की गारंटी नहीं है, लेकिन यह ईमानदारी से लागू हुई, तो खुशहाली की गारंटी जरूरत बन सकती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए