राकेश दुबे@प्रतिदिन। 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस था। यह दिवस विश्व स्तर पर भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में उत्सव के रूप में मनाया जाता है। निःसंदेह सुनने में यह सब बहुत अच्छा लगता है। पूरे विश्व का तो नहीं कह सकते परन्तु अपने भारत में जमीनी तौर पर यह सच है कि आजकल हर जगह बढ़ रहे कम्प्यूटरीकरण और डिजीटलीकरण ने बच्चों और युवाओं की मानसिकता को भी मशीनीकृत बना दिया है। पुस्तकों और पुस्तकालयों के डिजिटलीकरण के कारण बहुत से युवाओं द्वारा पुस्तकों को उनके पुस्तकीय स्वरूप में हाथों से पकड़ने और पढ़ने की प्रवृत्ति को किसी उबाऊ समझे जाने वाले काम की श्रेणी में माना जाने लगा है। किताबों के स्वरूपों में बहुत बदलाव हुए हैं। पढ़ना और अध्ययन दोनों में अंतर है। विश्व पुस्तक दिवस को मनाए जाने के पीछे सिर्फ पढ़ने की प्रवृत्ति को प्रेरित करना है, क्योंकि जब पढ़ेंगे तब कहीं जाकर अध्ययन की सीमा तक पहुंचेगे। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में अखबारों को उठाकर पढ़ने का समय लोगों के पास नहीं है, शेष बचे समय में वाटसेप और फेसबुक।
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सोशल मीडिया के आने के बाद से लोगों में पढ़ने की प्रवृति में इजाफा हुआ है। इसका कारण मशीनी सरलता है। इसमें कागज पैन उठाकर लिखना नहीं पड़ता ज्यादा से ज्यादा कॉपी पेस्ट करना पड़ता है और पढ़ने का पढ़ना भी हो जाता है। पढ़ने की इस तरह की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते किताबें फिर भी कहीं न कहीं पीछे रह जाती हैं। पाठक के स्तर पर किताबों की इस दशा के लिए सिर्फ पाठकों को ही उत्तरदायी माना जा सकता है। लेकिन किताबों के चलन में बढ़ोत्तरी के लिए लेखकों और प्रकाशकों की भूमिका सबसे अधिक मायने रखती है। सामान्य लेखकों की क्या स्थिति है ये वे ही जानते हैं, क्योंकि किताबों के व्यावसायीकरण ने उनकी अध्ययनी उपादेयता को बहुत गिरा दिया है। हकीकत यह है कि पैसा है, तो किताबें हैं। आजकल कोई भी रुपया देकर किताबें छपवा सकता है। विषयों और प्रकाशकों का अम्बार लगा हुआ है और उसके सापेक्ष लेखकों की भरमार भी कुछ कम नहीं है।
सोशल मीडिया के आने के बाद से हर व्यक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा पूरा उपयोग करते हुए अपनेआप को लेखक समझता जा रहा है। लेखन की कसौटियां किसी पोस्ट के शेयर होने और लाइकिंग की संख्या पर निर्भर होने लगी हैं। जिस विषय को एक प्रबुद्ध लेखक राष्ट्रहित और समाजोपयोगी समझकर लिखता है, सम्भव है उसे शेयर और लाइकिंग के पैमानों पर बिल्कुल अंक प्राप्त ही न हों। उसका ऐसा लेखन असफल करार दिया जा सकता है वैसे आज के लेखकों की क्या बिसात कि वे अपने लेखन के बदले पारिश्रमिक की बात भी उठाएं। ऐसे ढेरों लेखक हैं जो बिना पारिश्रमिक के मिल जाएंगे और ऐसे ढेरों लेखकों की संख्या भी कम नहीं हैं जो अपने कुछ भी लिखे को प्रकाशित करवाकर उसे बिकवाने की भी समृद्धता रखते हैं। अब बचते हैं वो जो लिखते हैं, स्तरीय लिखते हैं, पर बौद्धिक समृद्धि वाले आर्थिक विपन्नों की श्रेणी में आते हैं। ये वे लेखक हैं जो बहुत किताबें लिखने की सामर्थ्य तो रखते हैं, पर उनका लेखन मात्र पाण्डुलिपियों में दफन होकर रह जाता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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