
जापानी कंपनियों के साथ-साथ हल्के पानी से चलने वाले नई टेक्नॉलजी के रिऐक्टर बनाने वाली पश्चिमी देशों की कंपनियों को भी आकर्षित करने के लिए सरकार लायबिलिटी कानून में परिवर्तन करने की बात सोच रही है। अमेरिकी कंपनियों के साथ परमाणु बिजली बनाने का समझौता मुख्यत: दुर्घटना से जुड़ी देनदारियां बढ़ने की वजह से ही जमीनी शक्ल नहीं ले पाया। सरकार का यह फैसला साहसिक कहा जाएगा, क्योंकि अभी तो लगभग सारे ही पश्चिमी देश न्यूक्लियर पावर से पीछा छुड़ाने में जुटे हैं।
दूसरी ओर फ्रांस के नए पर्यावरण मंत्री निकोलस हलोट ने 2025 तक आधे ऐटमी प्लांट बंद करने की बात कही है। इसकी मुख्य वजह यह है कि जापान के फुकुशीमा संयंत्र में हुई दुर्घटना के बाद से परमाणु बिजली को लेकर लोगों की आशंकाएं बहुत बढ़ गई हैं। परमाणु बिजली को शत प्रतिशत आशंकामुक्त बनाने का कोई तरीका नहीं है। दुर्घटनाओं से निपटने के सबसे सुरक्षित उपाय कर लिए जाएं तो भी इनसे निकलने वाले कचरे को डंप करना खुद में एक बहुत बड़ी समस्या है।
इसे आश्चर्य ही कहेंगे कि एक तरफ अमेरिका और यूरोपीय देश परमाणु बिजली से किनारा कर रहे हैं, दूसरी तरफ एशिया के दो सबसे बड़े देश चीन और भारत इसे जोर-शोर से आगे बढ़ाने में जुटे हैं। चीन सन 2020 तक अपने एटमी प्लांट्स से 30 हजार मेगावाट से भी ज्यादा बिजली उत्पादन की योजना लेकर चल रहा है। भारत की हालिया घोषणा उत्साहवर्धक है, लेकिन इसका एक कमजोर पहलू यह है कि ईंधन और भारी पानी, दोनों बाहर से मंगाने की मजबूरी के चलते यह बिजली हमें काफी महंगी पड़ेगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए