राकेश दुबे@प्रतिदिन। अब वक्त आ गया है, कश्मीर मे चल्र रहे उपद्रव औए सीमा पार से हो रही हरकतों से निबटने का दोनों क स्पष्ट गठजोड़ है। नगरोटा, उरी, पंपोर जैसी जगहें कुख्यात-सी हो चुकी हैं। घाटी के बिगड़े हालात की एक ही वजह हमारे राजनेता हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने यह प्रभाव जमाने के लिए कि देश के ज्यादातर राज्यों में उसकी सरकार है, उसने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन जारी रखा है। सब जानते हैं कि अलगाववादियों के साथ पीडीपी के रिश्ते कैसे हैं और अलगाववादियों के तार पकिस्तान से कैसे जुड़े हैं। क्या यह न्यायोचित है कि जिन आतंकियों से हमारी सेना मोर्चा ले रही हो, हमारे राजनेता उन्हीं के हमदर्दों साथ गलबहियां करते दिखाई दें? किसी कवि ने सही ललकारा है –“काश्मीर को दान करो, या पाकिस्तान से युद्ध करो।”
इस सारे मसले में खुफिया एजेंसियों की नाकामी भी एक महत्वपूर्ण वजह है। वहां सोशल मीडिया को प्रतिबंधित करने में ही महीनों लग गए, जबकि वहां के पुलिस अफसर पिछले छह महीने से कह रहे थे कि सोशल मीडिया की सहायता से पाकिस्तान विद्रोह की आग भड़का रहा है। कश्मीर मसले को हर बार पहले बिगड़ने दिया जाता है, और फिर उसे ठीक करने की जिम्मेदारी सुरक्षा बलों पर डाल दी जाती है। पिछले 25 वर्षों में कम से कम तीन-चार बार ऐसे मौके जरूर आए हैं, जब कश्मीर के हालात लगभग सामान्य हो गए थे। मगर हमारे राजनेता उसका फायदा नहीं उठा सके। कई बार तो ऐसा लगता है, जैसे गृह मंत्रालय और कश्मीर के नेतागण ही घाटी को शांत नहीं देखना चाहते।
सीमा से काफी अंदर एडमिन बेस पर गुरवार को हमला बोला गया। कोई फ्रंट लाइन मोर्चा नहीं है। हाल के महीनों में सेना के जिन-जिन ठिकानों को आतंकियों ने निशाना बनाया, उनमें से शायद ही कोई फ्रंट लाइन मोर्चा था। इसका संकेत साफ है कि पाकिस्तान आतंकियों के माध्यम से उन मोर्चों को निशाना बना रहा है, जहां सैनिकों के परिजन आते-जाते हैं। वे हमारे सैनिकों के परिजनों को निशाना बनाकर जवानों के मन में खौफ पैदा करना चाहते हैं। इसीलिए हमें इसका मुंहतोड़ जवाब देना ही चाहिए।
कूटनीति के अतिरिक्त सेना के स्तर पर कुछ दूसरे उपाय हो सकते हैं। पहला तो यही कि हमारी सेना उन पर जोरदार जवाबी हमला करने की अनुमति दी जाये। दूसरा तरीका यह है कि 740 किलोमीटर की एलओसी में उन जगहों पर पाकिस्तानी सैनिकों को निशाना बनाएं, जहां वे कमजोर हैं। हमारे नीति-नियंताओं को समझना होगा कि चुनावी भाषणों में राष्ट्रीय सुरक्षा की बातें कहने भर से हालात ठीक नहीं होते , इसके लिए जमीन पर ठोस कार्रवाई करनी होती है। कीजिये, समय हाथ से जा रहा है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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