राकेश दुबे@प्रतिदिन। पिछले कुछ महीनों से संरक्षण की चाहत में कुछ तथाकथित भारतीय कंपनियां एक लॉबी समूह बनाने की कोशिश में लगी हैं। फ्लिपकार्ट और एएनआई टेक्नोलॉजीज जैसी कंपनियां भी इनमें शामिल हैं। पहली नजर में संरक्षण के पक्ष में गढ़े जा रहे तमाम तर्क प्रेरित करने वाले हैं। मसलन, चीन ने अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियों को देश से बाहर का रास्ता दिखाया और अपना ऑनलाइन कारोबार खड़ा किया, भारत को भी ऐसा करना चाहिए।
भारत में कारोबार करने वाली बहुराष्ट्रीय अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियां अपेक्षाकृत सस्ती कीमत पर अपनी सेवाएं दे रही हैं और ‘प्राइस वार’ के बहाने भारतीय कंपनियों को नुकसान पहुंचा रही हैं। कीमतों का यह अवमूल्यन वजूद की लड़ाई लड़ रहे देसी इनोवेशन को और ज्यादा नुकसान पहुंच रहा है।
देखा जाए, तो अभी अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियां और खासतौर से उबर व अमेजन ही निशाने पर हैं। अलीबाबा के अलावा भारत में किसी दूसरी चीनी ऑनलाइन कंपनी की सीधी मौजूदगी भी कहां है? वैसे अलीबाबा का भी फिलहाल कोई बड़ा कारोबार यहां नहीं दिखता। अलबत्ता एक अन्य चीनी ऑनलाइन कंपनी टेनसेंट होल्डिंग्स लिमिटेड ने हाल ही में फ्लिपकार्ट में निवेश किया है, और कुछ दिनों पहले जीजी शूझिंग ने अपनी पूंजी ओला में लगाई है।
दरअसल, भारतीय कानूनों में किसी कंपनी की ‘भारतीयता’ की बहुत स्पष्ट परिभाषा तय है। यह पूरे देश में लागू है, यहां तक कि भारतीय व भारतीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित व स्वामित्व (सर्वाधिक शेयर) वाली इकाइयों पर भी। फ्लिपकार्ट तो इस परिभाषा पर खरी नहीं उतरती, संभव है कि ओला इस मानक को पूरा कर रही हो। भारतीय कानून में स्पष्ट व्याख्या है। मगर यह मसला प्रतिस्पद्र्धा नीति के अंतर्गत आता है, जिसे ‘अब्यूज ऑफ डॉमिनेंस’ यानी प्रभुत्व का बेजा इस्तेमाल करना भी कहते हैं। इस ठहराई जा सकती है।
प्रावधान के अनुसार, बाजार में शीर्ष कंपनी ही लागत की अपेक्षा सस्ती कीमतों पर सेवा देने व प्रतिस्पद्र्धा को नुकसान पहुंचाने के मामले में दोषी रिलायंस जियो इंफोकॉम की मूल्य नीति का मसला इसी वजह से भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग में नहीं टिक सका था। यह सही है कि इस कानून में बदलाव का वक्त आ गया है\इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि हमारी हुकूमत को देसी इनोवेशन को प्रोत्साहित करने की दिशा में काम करना चाहिए। मगर यह प्रोत्साहन उन इनोवेशन्स को मिले, जो लघु उत्पाद व सेवा कंपनियों के रूप में काम कर रहे हैं; उन स्टार्ट अप को नहीं, जिनके पास पूंजी है और जो ऐसे आइडिया पर काम करते हैं, जो दूसरे बाजारों की सफल कंपनियों को देखकर (या यूं कहें कि चुराकर) तैयार किए गए हों। सच तो यह है कि अगर सरकार वाकई कुछ करना चाहती है, तो उसे उपभोक्ता के संरक्षण को लेकर काम करना चाहिए। उसे तमाम संबंधित कानूनों का पालन सुनिश्चित कराना चाहिए और यह भी कि सभी के लिए एक समान हालात या माहौल पैदा हो।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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