शैलेन्द्र गुप्ता/भोपाल। मप्र की राजनीति में पेंशन प्लान पर काम कर रहे कमलनाथ का पत्ता कट हो गया है। अब ना तो वो मप्र के प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाएंगे और ना ही मप्र में सीएम सीट के लिए कांग्रेस कैंडिडेट होंगे। हाईकमान ने भी यह बात मान ली है कि कमलनाथ क्षेत्रीय राजनीति के लायक नेता नहीं हैं। वो केंद्रीय राजनीति ही कर सकते हैं। पिछले दिनों सोनिया गांधी से हुई मुलाकात में स्थिति स्पष्ट हो गई है। अब कमलनाथ को केंद्र में अहम जिम्मेदारियां दी जाएंगी। स्वभाविक है, मप्र में अब केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया ही मैदान में बचे हैं। एक और नेता हैं जिन्हे अपने चेहरे से प्यार है। इसके अलावा कुछ और भी हैं जो 'भाग्य से फूटने वाले झींके को ताक रहे हैं।'
बता दें कि कमलनाथ लंबे समय से हर स्तर पर प्रयास कर रहे थे कि उन्हे मप्र कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया जाए। वो सीएम कैंडिडेट बनें। अपनी तमाम कमियों को छुपाते हुए वो अपने समर्थक विधायकों से अपनी लॉबिंग करा रहे थे। कमलनाथ ने मार्केटिंग के काफी प्रयास किए। परंतु कुछ सवाल लगातार गूंजते रहे। सबसे अहम यह था कि कमलनाथ का मप्र से रिश्ता ही क्या है। उनके पास मप्र का अध्ययन कितना है। क्या वो शिवराज सिंह जैसे धांसू मामा के सामने टिक पाएंगे।
हाईकमान तक जब ये सवाल पहुंचे तो गंभीरता से विचार भी किया गया और फाइनली तय हुआ कि इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे को केंद्र की जिम्मेदारी दी जाएगी। संसदीय दल के उप नेता का पद रिक्त हो गया है। इस पद पर रहे अमरिंदर सिंह अब पंजाब के मुख्यमंत्री हैं। वहीं, संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडगे को लोक लेखा समिति का चेयरमैन बना दिया गया है। ऐसे में ये दोनों महत्वपूर्ण पद रिक्त हैं जिनमें से संसदीय दल के नेता के रूप में कमलनाथ की ताजपोशी हो सकती है।
अब केवल सिंधिया बचे मैदान में
मप्र के 3 दिग्गजों में दिग्विजय सिंह का नेटवर्क सबसे मजबूत है परंतु वो खुद मप्र की राजनीति में वापस नहीं आ सकते। उनके पास दर्जनों ऐसे नेता हैं जो कैबिनेट मंत्री हो सकते हैं परंतु विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का चैहरा नहीं हो सकते। भाग्य से फिर लाइम लाइट में आए नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह को अपने चेहरे के काफी प्यार है परंतु उनके अकेले वोट से तो मप्र में कांग्रेस जीतने से रही। अत: केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया ही बचते हैं जिन्हे मप्र में कांग्रेस की कमान सौंपी जा सकती है। यदि दिग्विजय सिंह और सिंधिया के बीच कोई अप्रत्याशित समझौता हो जाए तो सरकार भी बन सकती है।
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