
चीन अभी आबादी के लिहाज से हमसे आगे है तो क्षेत्रफल में भी काफी बड़ा है। दोनों देशों के क्षेत्रफल में तो कोई घट-बढ़ होने से रही, पर जनसंख्या के मामले में भारत सात साल के अंदर चीन को पीछे छोड़ देगा। भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा अफ्रीका में भी आबादी बढ़ने की रफ्तार काफी तेज है। 26 अफ्रीकी देशों की कुल आबादी 2050 तक डबल हो जानी है। जनसंख्या में इस बढ़ोतरी का ही एक पहलू यह है कि विश्व में बुजुर्गों की तादाद तेजी से बढ़ी है। 60 वर्ष से ज्यादा उम्र के, यानी नौकरी से रिटायर लोगों की संख्या फिलहाल 96.2 करोड़ है जो 2050 में 210 करोड़ और 2100 तक 310 करोड़ हो जाएगी।
मनुष्यता के इतिहास में जनसंख्या वृद्धि का ऐसा विस्फोटक रूप कभी नहीं देखा गया था। विज्ञान और तकनीकी विकास के इस दौर में तेजी से बढ़ती आबादी के लिए भोजन, वस्त्र, आवास जैसी आवश्यक सुविधाएं जुटाना कोई बड़ी चुनौती नहीं है। लेकिन तमाम विकासों के बावजूद मानव समाज अभी तक हासिल सुविधाओं के न्यायपूर्ण वितरण की कोई व्यवस्था विकसित नहीं कर पाया है। इस वजह से क्षमता होते हुए भी आबादी के एक बड़े हिस्से की अनिवार्य जरूरतें ढंग से पूरी नहीं हो पा रहीं। फिर भी, इस बढ़ती आबादी की बुनियादी जरूरतें हमारी पृथ्वी आसानी से पूरी कर सकती है। ज्यादा बड़ी समस्या इस बढ़ी हुई आबादी की जीवनशैली से जुड़ी मांगें पूरी करने की है। जीवनशैली के नाम पर नई-नई सुविधाएं और शौक हमारी जरूरत का हिस्सा बनते जा रहे हैं। मनुष्य समाज की इन बढ़ी हुई मांगों का दबाव पृथ्वी के बाकी बाशिंदों को झेलना पड़ता है, जिनकी कई प्रजातियां हमारे देखते-देखते नष्ट हो चुकी हैं। इस असंतुलन से निपटना है तो विकास की होड़ में हो रहे विनाश पर भी नजर रखनी होगी। भारत के लिए आने वाला यह काल बड़ी चुनौतियाँ लेकर आ रहा है। घटते संसाधन और बढती जन संख्या के बीच तालमेल बैठाना कोई मामूली बात नहीं है। अभी तो हमने इस दिशा में कुछ करना तो दूर सोचना तक प्रारम्भ नहीं किया है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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