
एक अंतहीन दुखद कथा हो गई है, किसानी। हर फसल के बाद बाजार लुढ़कता है, और सरकार यह सुनिश्चित करने में ही लग जाती है कि किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है अथवा नहीं। नतीजतन, किसान कर्ज के अंतहीन चक्र में उलझता जाता है। समर्थन मूल्य भी आमतौर पर लागत से कम ही तय होता है। महाराष्ट्र में अरहर दाल की उत्पादन लागत 6240 रुपये प्रति क्विंटल आंकी गई, मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया गया 5050 रुपये प्रति क्विंटल। इसके बावजूद किसानों ने जिन कीमतों पर तुअर बेची, वह 3500 से 4200 रुपये प्रति क्विंटल के बीच थी। एक और उदहारण, एक किसान ने हरियाणा में तीन महीने की हाड़तोड़ मेहनत के बाद आलू की अच्छी फसल उगाई, मगर कीमतें कम हो जाने की वजह से वह अपना 40 क्विंटल आलू महज 9 पैसे प्रति किलो की दर से बेचने को मजबूर हुआ। जब कीमतें इस कदर गोते लगाने लगें, तो स्वाभाविक रूप से वह किसानों के लिए प्राणघातक साबित होंगी।
सरकार कभी भी किसानों को बचाने के लिए आगे नहीं आती, इसकी तुलना शेयर बाजार से करें। बाजार के लुढ़कते ही फौरन हमारे वित्त मंत्री घंटे-दर-घंटे आर्थिक संकट पर नजर रखने का वादा करते हैं और निवेशकों को धैर्य बंधाने के लिए वादे करते हैं। सच यही है कि दीन-हीन किसान कर्ज में जीने को मजबूर कर दिए गए हैं। यह कर्ज हर बीतते वर्ष के साथ बढ़ता जा रहा है। हमारे अन्नदाता जिस आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, दरअसल वह फसल की उचित कीमत न मिलने के कारण और गहरा रहा है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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