
दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच महीनों चला संघर्ष आखिरकार जंग के इस्तीफे के साथ समाप्त हुआ और केजरीवाल को इस विवाद का खामियाजा निगम चुनावों में अपनी पार्टी के काफी खराब प्रदर्शन के तौर पर भुगतना पड़ा। नतीजतन, केजरीवाल ने दिल्ली में अपनी आक्रामकता को कुछ संयमित कर लिया है। अब दिल्ली कुछ रास्ते पर आई है।
पुदुच्चेरी की कहानी अलग है। नजीब जंग एक सौम्य नौकरशाह माने जाते रहे, तो किरण बेदी एक ठसक वाली आईपीएस अधिकारी के रूप में चर्चित रही हैं। पूर्व में उन्होंने जो कुछ किया, उसे सराहा भी गया और लगभग उसी अनुपात में उनके कदमों की आलोचनाएं भी हुईं। हालांकि उनकी मंशा और प्रतिबद्धता पर किसी ने सवाल नहीं उठाया, मगर काम करने के उनके तरीकों ने अक्सर विवादों को जन्म दिया। उनकी आलोचना में हमेशा यही कहा जाता है कि वह ‘लोकप्रियता की भूखी’ हैं और अपने काम को ‘बढ़ा-चढ़ाकर’ पेश करके श्रेय लेने को आतुर रहती हैं।
दूसरी तरफ, अनुभवहीन केजरीवाल के मुकाबले नारायणसामी एक माहिर कांग्रेसी राजनेता हैं, जिनके पास कई ओहदों पर काम करने का तजुर्बा है। इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय में भी कुछ दिनों तक कार्य करने का अनुभव शामिल है। उनके पास न सिर्फ काफी प्रशासनिक अनुभव है, बल्कि संविधान और उसकी बारीकियों का भी उन्हें अच्छा-खासा ज्ञान है। लेकिन पुराने दौर का नेता होने के कारण मुद्दों व विवादों से निपटने का उनका अपना तरीका है।
आम तौर पर भाजपा पर यह आरोप लगता है कि वह विरोधी पार्टी की सरकारों को राज्यपालों के जरिये परेशान कर रही है। ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल का है लेकिन केंद्र शासित सूबों में यह टकराव ज्यादा गहरा है, क्योंकि वहां उप-राज्यपाल के पास अतिरिक्त शक्तियां हैं। देश में नौ केंद्र शासित क्षेत्र हैं, जिनमें से दिल्ली और पुडुचेरी के पास अपनी निर्वाचित विधानसभाएं हैं। लेकिन ये आधी-अधूरी शक्ति वाली विधानसभाएं हैं, क्योंकि इनको पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं हासिल है। यही वह मुफीद समय है, जब इन केंद्र शासित प्रदेशों को पूरी जिम्मेदारियां सौंप दी जाएं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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