
डिजिटल लेनदेन जितना ज्यादा होगा, नकदी के चलन की आवश्यकता उतनी ही कम होती जाएगी। आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक 23 जून 2017 तक 15.3 लाख करोड़ रुपये की नकदी चलन में थी। यह राशि नोटबंदी के पूर्व के स्तर के करीब 85 फीसदी के बराबर है। जनवरी माह की छह तारीख को अर्थव्यवस्था में 8.9 लाख करोड़ रुपये की नकदी थी। यह नकदी का सबसे कम स्तर था। उस स्तर में 70 प्रतिशत का सुधार दर्ज किया गया है। अर्थव्यवस्था में नकदी की मांग के चलते ही केंद्रीय बैंक को नकदी चलन में लानी पड़ रही है। आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि डिजिटल लेनदेन के मूल्य और आकार दोनों में अप्रैल में काफी कमी आई।
आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी वजह अर्थव्यवस्था में नकदी की स्थिति सामान्य होना है। यहां पर नीति निर्माताओं के लिए दो सवाल खड़े होते हैं। पहला, वे अर्थव्यवस्था में किस हद तक नकदी दोबारा डालना चाहते हैं? दूसरा, मौजूदा रुझान के आधार पर अगर कुल प्रचलित नकदी नोटबंदी के पहले के स्तर के करीब आती है तो क्या यह माना जाए कि गत नवंबर में सबको चकित करते हुए की गई नोटबंदी की घोषणा भी लोगों को डिजिटल लेनदेन के लिए प्रेरित करने में पूरी तरह नाकाम रही है।
सरकार को पहले यह आश्वस्ति करनी चाहिए कि आखिर किन बातों ने डिजिटल लेनदेन में कमी पैदा की है। उसके बाद ही वह इस सिलसिले में लोगों को प्रोत्साहित करने के नए तरीके निकाल सकती है और नकदी के अतिशय इस्तेमाल पर अंकुश लगा सकती है। इससे सरकार को मोटेतौर पर यह अनुमान भी लग जाएगा कि कितनी नकदी के प्रचलन की आवश्यकता है। संक्षेप में कहें तो सरकार को ही इन दोनों मुद्दों पर समझबूझ कर कदम उठाना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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