राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारतीय न्याय व्यवस्था ने अपने प्रतीक चिन्ह के रूप में जिस कृति को स्वीकार किया है, उसकी आँखों पर पट्टी बंधी है। नरोत्तम मिश्रा मामले ने तो इससे आगे जाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि देश के कुछ संवैधानिक संस्थानों के पास आँख ही नही है, उन्हें दूसरे के की सहारे जरूरत होती है। वे खुद कुछ नहीं करना चाहते है, आवेदन आने पर ही कुछ करेंगे। स्वत: नहीं। ऐसा ही नख दंत विहीन संस्थान देश का चुनाव आयोग है और उसकी तर्ज़ पर देश के विभिन्न हिस्सों में चुनाव कराते अन्य संस्थान हैं। मामला पेड़ न्यूज़ का है। देश में कौन सा चुनाव है जो इस बीमारी से ग्रस्त नहीं है। अब तो जीवन साथी का चुनाव भी इस देश में मीडिया करा रहा है।
नरोत्तम मिश्रा की अयोग्यता से कुछ सवाल उठते हैं। जैसे चुनाव के दौरान आयोग के पर्यवेक्षक क्या देख रहे थे ? चुनाव अधिकारी किस दबाव में थे ? मीडिया संस्थानॉ की नैतिकता कहाँ चली गई थी ? और क्या भारतीय मतदाता को अपनी राय पेड़ मीडिया से बनाना पडती है ? और इस सबसे जुडा और बड़ा सवाल पाठकों की नजर में उस मीडिया की विश्वसनीयता का है, जिनके कारण यह सब हुआ है।
राजनीति में सब जायज है के फार्मूले से इस देश में चुनाव होते हैं। नैतिकता के विपरीत अनैतिकता का चरम ही विजय का मापदंड होता जा रहा है। अदालतों में तो ऐसे मुकदमे दुबारा चुनाव नजदीक आने पर दायर होते हैं और यदि पहले हो गये तो भी उनके नतीजे चुनाव नजदीक होने पर आते है। सबसे पहली निगहबानी का दायित्व चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक का होता है, परन्तु उसके पास कोई अधिकार नहीं होता। यह चाहे तो पेड न्यूज बनने से पहले रुक सकती है। अब तक इन पर्यवेक्षक महोदयों की भूमिका चुनाव क्षेत्र के पर्यटक से ज्यादा नहीं होती। हर उम्मीदवार मीडिया हाउस के मालिकों से सांठ- गाँठ कर मीडिया की कृपा खरीदता है। तब मीडिया हाउस में संपादक जैसी संस्था को दरकिनार कर प्रबन्धक प्रणाली ही चुनाव के दौरान सब कुछ हो जाती है। उसे नियंत्रित करने वाले सरकारी महकमे आँखें बंद कर लेते हैं। चुनाव के दौरान एक ही पृष्ठ पर सारे उम्मीदवार जीतते रहते है, पाठक, जनता और लोकतंत्र हारता रहता है।
पेड़ न्यूज़ को लेकर एक बड़े मीडिया हाउस के मालिक की पिछले चुनाव में की गई टिप्पणी गौर करने लायक है। उन्होंने एक नया दर्शन इस व्यवसाय को दिया था। उन्होंने कहा था– भाई साहब, अब पत्रकार है, जो सोचते हैं वो सही हो सकता है, पर मैं जो सोचता हूँ परम सत्य है, चुनाव के दिनों में इस मामले में मेरा सोच ही चलेगा। वे तो चले गये हैं, सोच कायम है। हर चुनाव में यही होता था, होता है और होता रहेगा।
पर कब तक ? तब तक जब तक कि मतदाता अपने उम्मीदवार की अयोग्यता को अपने मुंह पर तमाचा न मानने लगे। मीडिया हाउस को अपनी विश्वसनीयता संकट में आती न दिखे। जरूरी है, चुनाव की प्रक्रिया में सुधार की, उससे पहले मतदाता से लेकर मीडिया और चुनाव आयोग तक अपने कर्तव्यों के ईमानदार निर्वहन की।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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