
रेलवे भारतीयों की जीवन रेखा कही जाती है, लेकिन आज भी रेलयात्रा संतोषजनक नहीं है। न तो यात्रियों की सुरक्षा की कोई गांरटी है, न ट्रेनों के समय से पहुंचने की, न स्वास्थ्यप्रद खानपान की, न साफ-सफाई की। सच कहा जाए तो भारतीय समाज में गरीब और अमीर का जो भीषण विभाजन है, वह भारतीय रेलवे में कुछ ज्यादा ही मुखरता से जाहिर हो रहा है। सरकारों ने संपन्न वर्ग को लुभाने के लिए कुछ अच्छी ट्रेनें चला दी हैं। उनका सारा ध्यान भी उन्हीं ट्रेनों पर रहता है, हालांकि उनकी हालत भी अच्छी नहीं रह गई है। सामान्य यात्रियों को देने के लिए बस इतना ही है कि यात्री किराया न बढ़ाया जाए, या कम बढ़ाया जाए। रेलवे राजनीति का एक टूल बनी हुई है। राजनीतिक लाभ के लिए इसमें मनमाने ढंग से नियुक्तियां हुई हैं। अनेक सेवाओं के लिए अपने चहेतों को ठेके दिए गए हैं, जिनसे रेलवे का कबाड़ा हो गया है। गाड़ियां किसी तरह दौड़ा लेने के अलावा रेल प्रशासन कुछ भी नया कर पाने में अक्षम है। न तो खराब ट्रैक और पुलों का मरम्मत हो पा रहा है, न खानपान सेवा सुधर पा रही है, न स्टेशनों का ढंग से मेंटिनेंस हो पा रहा है, न ही बिना फाटक वाली रेल क्रॉसिंगों को हटाना संभव हो पा रहा है। ढुलाई में भी प्रफेशनल रवैया न हो पाने के कारण राजस्व में इजाफा नहीं हो पा रहा है। रेलवे को आमूल-चूल बदलने की जरूरत है।
अभी तक इस दिशा में न तो कोई दृष्टिकोण दिखा है, न ही वित्त ही उपलब्ध है। निजीकरण का एक तो विरोध होता है, दूसरे उससे कोई खास लाभ नहीं हो रहा। रेलवे का परिचालन औसत सुधारना ही बड़ी चुनौती है। पिछले बजट में इसे 97 प्रतिशत दिखाया गया। यानी रेलवे को अगर 100 रुपये की आमदनी हुई तो उसमें से परिचालन का खर्च निकालने के बाद मरम्मत, सुधार और कर्ज अदायगी के लिए सिर्फ तीन रुपये बचे। मेकओवर योजना में ध्यान रखना होगा कि पहले ऐसे प्रॉजेक्ट्स उठाए जाएं, जिनसे तत्काल रेलवे की आमदनी तो बढे ही यात्री भी संतोष व्यक्त कर सके।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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