शैलेन्द्र गुप्ता/भोपाल। कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह से हाईकमान ने तेलंगाना का प्रभार भी छीन लिया। इससे पहले कर्नाटक और गोवा का प्रभार भी वापस ले लिया था। मप्र में 2003 में शर्मनाक हार के बाद दिग्विजय सिंह ने 10 साल का सन्यास बिताने के बाद राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी लेकिन पिछले कुछ समय से उनके खिलाफ एक के बाद एक कार्रवाईयां हो रहीं हैं। बड़े बड़े मुद्दे उठाने के बावजूद सोशल मीडिया पर हमेशा उनका तीव्र विरोध होता है। अब खुसुर फुसुर शुरू हो गई है कि आशा रानी साहब उनके लिए भाग्यशाली थीं जबकि अमृता राय अनलकी साबित हो रहीं हैं।
भारत में लोग अपनी और अपने प्रिय व्यक्तियों की असफलताओं का अक्सर इस तरह का कारण खोज निकालते हैं। यह उनका अनुमान मात्र होता है परंतु धीरे धीरे यह मान्यता में बदल जाता है। दिग्विजय सिंह के बारे में अब कुछ इसी तरह की चर्चाएं शुरू हो गईं हैं। उनके समर्थक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि दिग्विजय सिंह जैसा धुरंधर नेता इस तरह की कार्रवाईयों का शिकार हो सकता है। उनका मानना है कि यह भाग्य और दुर्भाग्य का खेल है और उनकी दूसरी पत्नि अमृता राय इसका केंद्र हैं।

कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के मप्र में सर्वाधिक विरोध दर्ज होता है परंतु यह भी सच है कि इसी मप्र में उनका आज भी काफी प्रशंसक हैं। सैंकड़ों क्षेत्रीय नेता दिग्विजय सिंह से जुड़े हुए हैं और आज तक वो जिस भी मुकाम पर हैं, दिग्विजय सिंह के आशीर्वाद के कारण ही हैं। उनमें से कई लोगों का मानना है कि यह शुभ और अशुभ काम खेल है। दिग्विजय सिंह ने मप्र में 10 साल शासन किया। 2003 के चुनाव से पहले अचानक उन्होंने कुछ ऐसे अप्रिय फैसले किए जिसके कारण उनके वो सारे प्रशंसक नाराज हो गए जो बिना स्वार्थ के उनसे जुड़े हुए थे। नतीजा उन्हे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके उनकी कांग्रेस में पकड़ कमजोर नहीं हुई। उन्होंने 10 साल का सन्यास बिताया परंतु वो इतने पॉवरफुल थे कि उनके समर्थकों को ना तो सन्यास लेना पड़ा और ना ही गुट बदलकर नए नेता की शरण में जाना पड़ा।

2015 में दिग्विजय सिंह ने दूसरा विवाह किया। यह प्रेम विवाह था। अमृता सिंह एवं दिग्विजय सिंह ने खुलकर कहा कि यह नि:स्वार्थ प्रेम है। समर्थकों ने इसे दिग्विजय सिंह की दिलेरी माना। राजनीति में इस तरह अपने प्रेम को स्वीकार करने वाले कम ही होते हैं। लेकिन इसके बाद उनका बुरा वक्त शुरू हो गया। धीरे धीरे हाईकमान में उनकी पकड़ कमजोर होती गई। मप्र में लगातार दूसरी और तीसरी हार का कारण भी दिग्विजय सिंह को ही बताया गया। यहां तक तो ठीक था परंतु गोवा में कांग्रेस सरकार का गठन मामले में भी दिग्विजय सिंह को दोषी बताया गया। हाईकमान ने कर्नाटक और गोवा का प्रभार दिग्विजय सिंह से छीना। एक वक्त था जब दिग्विजय सिंह को राहुल गांधी का राजनीतिक गुरू कहा जाता था परंतु अब वो बात भी नजर नहीं आती। हालात यह बन गए कि अब तेलंगाना का प्रभार भी छीन लिया गया। स्वभाविक है, उनके समर्थक अब दिग्विजय सिंह की बिफलताओं को उनकी अयोग्यता के बजाए उनका दुर्भाग्य प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं।