
संपत्ति के अधिकार कभी सही अर्थों में संरक्षित नहीं किए गए और उद्यमिता पर समाजवादी शैली के नियंत्रण लगा दिए गए। 1991 में हुए आर्थिक सुधारों के ढाई दशक बीत चुके हैं। इस अवधि में भी पूरा नियंत्रण समाप्त नहीं हुआ है। भारत अभी भी ऐसा देश है जहां कारोबारी जगत के सामान्य कामकाज में हस्तक्षेप होता है। दो लोगों के निजी अनुबंध में भी दखल होता है। आर्थिक आजादी की परिकल्पना नहीं है। जब तक राजनीतिक आजादी के साथ सही अर्थों में आर्थिक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, स्वतंत्रता दिवस एक अधूरी आजादी का उत्सव ही माना जायेगा। भारत, इण्डिया या न्यू इण्डिया नाम रखने से कुछ नही बदलेगा।
किसी विद्वान ने लिखा है कि “व्यक्तिगत आजादी और एक न्यूनतम स्तर की आर्थिक संपन्नता तथा सामाजिक सम्मान के बीच संबंध है। बिना आजाद जिंदगी जीने की आजादी के यह सांकेतिक आजादी निरर्थक है।“ अभी भी देश में वंचित वर्गों- कुछ धार्मिक अल्प संख्यकों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों आदि को मताधिकार और आजादी का तकनीकी लाभ तो हासिल है लेकिन उनके रोजमर्रा के जीवन में जो भेदभाव है वह उनकी आजादी को काफी हद तक प्रभावित करता है। जो लोग वंचित वर्ग में पैदा नहीं हुए हैं उनके लिए भी देश में व्याप्त गरीबी यही बताती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा न्यूनतम संसाधनों के साथ जिंदगी बसर कर रहा है। जबकि आजादी के 70 बरस बाद तो उनको इसका पूरा लाभ मिलना चाहिए था। और इसी कारण जगमगाते शॉपिंग मॉल और स्टार्टअप की चमक के पीछे एक विशाल, भ्रमित और गरीब भारत दिखाई देता है, जिसे सरकार अब “न्यू इण्डिया” समझा रही है।
हर व्यक्ति को अपनी जिंदगी जीने के मामले में चयन की भरपूर स्वतंत्रता ही आज़ादी है और इस चयन में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। आजादी के लिए एक न्यूनतम स्तर की आय और व्यक्तिगत सम्मान भी नितांत आवश्यक हैं। देश के अधिकांश लोगों को यह मयस्सर नहीं है । भारत से इण्डिया और अब न्यू इण्डिया की यात्रा बिना इसके पूर्ण नहीं होगी। सरकर और नागरिकों के बीच एक सद्भाव की जरूरत है। अभी तो सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ में लिपटे जुमलों से आज़ादी की बात होती है। जो अधूरी है, उसे हम सबको मिलकर “भारत” में बसे गरीब के हित में पूरा करना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए