
ये रोजगार भी कम स्तर वाले, कम वेतन वाले सचिवालयीन काम हैं जिनके लिए विज्ञान विषय के स्नातक ही सबसे बेहतर तैयारी वाले माने जाते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाओं का क्रम इसके बाद आता है। यहां रोजगार का स्तर 25 प्रतिशत से थोड़ा कम है। यहां भी विज्ञान स्नातक आगे हैं। अंकेक्षण, विषयवस्तु विकास और विश्लेषण आदि जैसे तथाकथित दिमागी कामकाज में रोजगार का स्तर 5 प्रतिशत से भी कम है। इन क्षेत्रों में विज्ञान स्नातक आगे नहीं हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि शिक्षकों के रूप में 10 से 15 प्रतिशत स्नातकों को रोजगार मिलता है। यह भी इस समस्या की मूल वजहों में से एक है।
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की यह शिकायत लंबे समय से चली आ रही है। इसकी शुरुआत देश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के खराब स्तर से होती है। इसकी वजह से स्कूलों से बहुत कमजोर विद्यार्थी निकलते हैं। समय-समय पर होने वाले अंकेक्षणों से पता चलता है कि देश के स्कूली बच्चे अपने आयु वर्ग में न्यूनतम मानकों से भी वंचित हैं। विभिन्न देशों के बीच हुए एक अध्ययन में भारत को इस मामले में 74 में से 71वां स्थान मिला। लेकिन नियमन की कमी और उसमें भ्रष्टाचार भी आड़े आता है। इसमें संस्थानों की मान्यता और कैपिटेशन शुल्क जैसी परिपाटी शामिल हैं जो तेजी से फलफूल रहे हैं। यही वजह है कि उच्च शिक्षा का क्षेत्र खराब गुणवत्ता के दुष्चक्र में है और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और नियुक्तियों में केंद्र और राज्य सरकारों के राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते हालात और बिगड़े हैं। इनके चलते निजी क्षेत्र के बेहतर संस्थान भी इस क्षेत्र में नहीं आ रही हैं। इसमें तमाम प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय शामिल हैं जिनको प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मानक के तहत आना था। यह बात देश में उच्च शिक्षा की खराब गुणवत्ता के बारे में काफी कुछ कहती है। हालांकि यह भी सच है कि इस बीच निजी विश्वविद्यालयों की तादाद तेजी से बढ़ी है। देश के कुल विश्वविद्यालयों में उनकी हिस्सेदारी आज 60 प्रतिशत है जबकि सदी के आरंभ में यह 10 प्रतिशत थी।
आज देश का कोई ऐसा उच्च शिक्षा संस्थान नहीं है जो वैश्विक शीर्ष 200 की रैंकिंग में आता हो। यहां तक कि चीन जैसे अधिनायकवादी देश से भी दो विश्वविद्यालय इस सूची में हैं। देश की आबादी का आधा से अधिक हिस्सा 25 से कम उम्र का है। हम इस जननांकीय लाभ का गुणगान भी करते हैं, लेकिन यह रुझान इससे मेल नहीं खाता। बढ़ती कृत्रिम बुद्घिमता के बीच कम होती रोजगार वृद्घि, देश के शिक्षित युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी आदि सामाजिक अशांति की वजह बन सकते हैं। सरकार को फौरन इस दिशा में कुछ सोचना चाहिए, शिक्षा रोजगारोन्मुखी हो, इस पर काम करने की जरूरत है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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